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________________ प्रथम वक्षस्कार - भरत क्षेत्र का स्थान एवं स्वरूप ११ शब्दार्थ - खाणु - स्थाणु-सूखे ढूंठ, विसम - ऊँची-नीची असमान भूमि, दुग्ग - दुर्गम-जहाँ जाना कठिन हो ऐसा स्थान, पवाय- प्रपात-ऊँचाई से जल गिरने के स्थान, उज्झरअवझर-जलस्रोत, णिज्झर - निर्झर, खड्डा - गड्ढे, दरी - गुफा, दह - द्रह-हृद-जलपूर्ण स्थान, रुक्ख - वृक्ष, गुम्म - गुल्म-वृक्षों के झुरमुट, वल्ली - बेल, अडवी - अटवीविशाल वन, सावय - श्वापद-हिंसक पशु, तक्कर - तस्कर-चोर, डिम्ब - विप्लव-स्थानीय उत्पात, डमर - शत्रुकृत उपद्रव, दुब्भिक्ख - दुर्भिक्ष, दुक्काल - दुष्काल-धान्य आदि की महंगाई से युक्त समय, पासंड - पाषंड-विविध मतवाद, किवण - कृपण-दयनीय स्थिति युक्त, वणीमग- याचक, ईति - फसल नाशक टिड्डी आदि जनित प्रकोप, मारि - मारकप्राणघातक रोगों की स्थिति, कुवुट्टि - कुवृष्टि-अवांछित-हानिप्रद वर्षा, अणावुट्टि - अनावृष्टिसमय पर वर्षा का अभाव, रायबहुले - राजाओं का बाहुल्य, संकिलेस - संक्लेश-कष्ट, अभिक्खणं-अभिक्खणं- क्षण-क्षणवर्ती, संखोह - संक्षोभ-चैतसिक व्यथा, पाईण - पूर्व, पडीण - पश्चिम, आयए - लम्बा, पलियंकसंठाणसंठिए - पलंग के आकार सदृश, धणुपिट्ठसंठिए - प्रत्यंचा चढाए धनुष के पीछे के भाग के सदृश, पुढे- स्पृष्ट-स्पर्श किए हुए। . भावार्थ - हे भगवन्! जंबूद्वीप में विद्यमान भरत नामक वर्ष-क्षेत्र कहाँ परिज्ञापित हुआ है - उसकी स्थिति कहाँ है? हे गौतम! भरत क्षेत्र चुल्लहिमवंत-लघु हिमवंत पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती. लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमवर्ती लवणसमुद्र के पूर्व में अवस्थित है। ___ इसमें स्थाणु, कंटकमय झाड़ी, बबूल आदि वृक्ष, ऊंची-नीची भूमि, दुर्गम स्थान, पर्वत, प्रपात, जलस्रोत, निर्झर, गड्ढे, गुफाएँ, नदियाँ, पेड़, गुच्छ, गुल्म, लताएँ, बेलें, वन, जंगली हिंसक प्राणी, विविध घास-पात, तस्कर, विप्लव, शत्रुकृत उपद्रव, दुर्भिक्ष, दुष्काल, विविध मतवादी जनों द्वारा संचालित मिथ्यावाद, दयनीय, याचक, फसल विनाशक चूहे, टिड्डी आदि, प्राणघातक रोग, अवांछित-हानिप्रद वृष्टि, अनावृष्टि, राजाओं की बहुलता से उत्पन्न अस्थिरता के कारण प्रजोत्पीड़न, रुग्णता, संक्लेश, क्षण-क्षणवर्ती संक्षोभ-इन सबकी बहुलता है। वह भरत क्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लंबा एवं उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह उत्तर में पलंग के संस्थान जैसा तथा दक्षिण में प्रत्यंचा चढाए धनुष के पीछे के भाग जैसा है। वह तीन ओर से लवण समुद्र से संस्पृष्ट है। गंगा महानदी, सिंधु महानदी एवं वैताढ्य पर्वत से यह भरत क्षेत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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