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________________ तृतीय वक्षस्कार खंडपात पर विजय एवं नौ योजन चौड़ी, उत्तम नगर सदृश छावनी लगाई। अवशिष्ट वर्णन पूर्ववत् है यावत् फिर राजा ने नवनिधियों को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या अंगीकार की । तदनंतर राजा भरत पौषधशाला में यावत् नौ निधियों का मन में चिंतन करता हुआ स्थित रहा। नौ निधियाँ अपने अधिष्ठायक देवताओं के साथ राजा भरत के समक्ष उपस्थित हुई । वे अपने अपरिमित लाल रत्नों सहित, निश्चय ही क्षय रहित, नाश रहित, लोक में उन्नतिप्रद एवं लोकविश्रुत थी। उनका वर्णन इस प्रकार है - - गाथाएँ ७. महाकाल ८. माणवक ६. शंख - ये नौ निधियाँ थीं ॥१॥ - १८६ १. नैसर्प २. पाण्डुक ३. पिंगलक ४. सर्वरत्न ५. महापद्म ६. काल १. नैसर्प निधि - गांव, आकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मडंब, स्कंधावार, आपण, गृह - इनको स्थापित या उत्पन्न करने की विशेषता लिए होती है ॥१॥ २. पाण्डुक निधि - गिने जाने, मापे जाने, तोले जाने योग्य पदार्थों तथा धान्यों के उत्पादन में समर्थ होती है ॥२॥ ३. पिंगलक निधि - पुरुषों, स्त्रियों, अश्वों तथा हाथियों के सभी प्रकार के आभरणोंअलंकारों को उत्पन्न करने की विशेषता लिए होती है ॥ ३ ॥ ४. सर्वरत्न निधि - चक्रवर्ती के चतुर्दश श्रेष्ठ रत्नों को यह उत्पन्न करती है, जो एकेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय होते हैं। चक्ररत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, छत्ररत्न चर्मरत्न, मणिरत्न तथा काकणी रत्न ये एकेन्द्रिय तथा सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न तथा स्त्रीरत्न ये पंचेन्द्रिय हैं ॥ ४ ॥ Jain Education International ५. महापद्म निधि सब प्रकार के वस्त्रों को उत्पन्न - निष्पन्न करने, रंजित एवं प्रक्षालित करने का वैशिष्ट्य लिए होती है ॥ ५ ॥ - ६. काल निधि - समस्त ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान, तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं बलदेव - वासुदेव इन तीनों प्राचीन वंशों, सौ प्रकार के शिल्पकर्मों के उत्तम, मध्यम एवं अधम कोटि के कर्मज्ञान का सामर्थ्य लिए होती है ॥६॥ ७. महाकाल निधि में विभिन्न प्रकार के लौह- ताँबा पीतल आदि धातुएँ, चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, स्फटिक तथा मूंगे आदि बहुमूल्य खनिज पदार्थ उत्पन्न करने की क्षमता होती है॥७॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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