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________________ तृतीय वक्षस्कार - रत्न चतुष्टय द्वारा सुरक्षा १७७ छोर को संभाले हुए बहुमूल्य, श्रेष्ठ रत्न लेकर जहां राजा भरत था, वहाँ आए। अंजलि बद्ध हाथों को मस्तक पर रखे हुए राजा को जय-विजय द्वारा वर्धापित किया था बहुमूल्य उत्तम रत्न उन्हें भेट किए एवं बोले - ___ गाथा - वैभव के स्वामिन्! गुण-गण शोभित! जयशील! लज्जा, श्री, धैर्य एवं यश के धारक! राजोचित सहस्त्र लक्षण धारिन! नरपते! हमारे राज्य को चिरकाल पर्यन्त धारण करे - स्वीकार करे, पालन-पोषण करे॥१॥ - अश्वों, गजों, नरों, मानवों एवं नवनिधियों के स्वामिन्! बत्तीस सहस्त्र देवों के अधिनायक! आप चिरकाल तक जीवित रहें॥२॥ प्रथम नरपते! ऐश्वर्यवान! सहस्त्रांगनाओं के हृदयवल्लभ! लाखों देवों के अधीश्वर! चतुर्दशरत्न धारण करने वाले! कीर्तिशालिन! आपने दक्षिण, पूर्व, पश्चिम दिशा में समुद्र पर्यंत तथा दक्षिण दिशा में चुल्लहिमवान् गिरिपर्यन्त-समग्र भरत क्षेत्र को विजित कर रहे हैं। हम देवानुप्रिय केआपके देश में प्रजा के रूप में बस रहे हैं। ॥३,४॥ - हे देवानुप्रिय! आपकी समृद्धि, द्युति, कीर्ति आंतरिक एवं बाह्य शक्ति, पौरुष, पराक्रम-ये सभी आश्चर्य जनक हैं। आपको दिव्य उद्योत, दिव्य देव प्रभाव लब्ध, संप्राप्त, अभिसमन्वागतस्वायत हैं। हे देवानुप्रिय! आप द्वारा समुपलब्ध ऋद्धि आदि को यावत् हमने प्रत्यक्ष देख लिया है। देवानुप्रिय! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं, आप हमें क्षमा करें, आप क्षमा करने में समर्थ हैं। इस प्रकार बारबार ऐसा कर हाथ जोड़े हुए राजा भरत के चरणों में गिर पड़े एवं उनके शरणागत हुए। ... .. फिर राजा भरत ने आपात किरातों द्वारा उपहार के रूप में समर्पित श्रेष्ठ, उत्तम रत्न । अंगीकार किए और बोला-तुम सभी लौट जाओ। तुम मेरी भुजाओं की छत्रच्छाया में हो। तुम भय एवं उद्वेग रहित होकर सुख पूर्वक रहो। अब तुम्हें किसी से भी कोई डर नहीं है, ऐसा कह कर राजा ने उनको सत्कृत-सम्मानित कर विदा किया। . . तदुपरांत राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा - हे देवानुप्रिय! जाओ, सिंधुमहानदी के पश्चिमवर्ती दूसरे कोने में विद्यमान निष्कुट प्रदेश को, जिसके एक तरफ सिंधु महानदी एवं एक ओर सागर तथा दूसरी ओर चुल्लहिमवान है, जहाँ उबड़-खाबड़ स्थान है - गड्ढे हैं, उन्हें अधिकृत करो तथा श्रेष्ठ उत्तम रत्न प्राप्त करो। ऐसा हो जाने पर शीघ्र मुझे सूचना दो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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