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________________ १७० *-*-19-10--04-09-122-8-0-0-00-00 -0 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र 0 00--*-*-*-*-09-08-10-28-02-20-00-00-0-**-*-*-*-*-*-*-10-19-2 उल्लसित हो उठे और जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आए। करबद्ध होते हुए यावत् मस्तक पर अंजलिबद्ध हाथों से मेघमुख नागकुमारों को जय-विजय से वर्धापित किया, जयनाद किया, बोले - देवानुप्रियो! कोई मौत को चाहने वाला, अशुभ लक्षण युक्त यावत् लज्जा, शोभा एवं कांति से परिवर्जित, हमारे देश पर पराक्रम पूर्वक चढ़ आया है। देवानुप्रियो! आप उसको इस प्रकार मारें, जिससे वह हमारे देश पर पराक्रम पूर्वक आघात न कर सके। ___ तब उन मेघमुख नागकुमार देवों ने आपात चिलातों से यों कहा - देवानुप्रियो! जिसने ऐसा किया है, वह भरत नाम का चातुरंत चक्रवर्ती है, जो महान् ऋद्धि एवं द्युतियुक्त है यावत् परमसुख संपन्न है। वह किसी देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, नाग या गंधर्व द्वारा किसी शस्त्र अग्नि या मंत्र प्रयोग द्वारा हटाया नहीं जा सकता, रोका नहीं जा सकता। फिर भी तुम्हारा प्रिय करने के लिए हम उपसर्ग संकट उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसा कहकर वे आपात किरातों के यहाँ से चल पड़े और वैक्रिय लब्धि के समुद्घात द्वारा आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाला। इन पुद्गलों से मेघों की विकुर्वणा की। जहाँ राजा भरत की छावनी थी, वहाँ आए। मेघ सैन्य शिविर के ऊपर शीघ्र ही गर्जने लगे, बिजली चमकाने लगे तथा जल्दी ही वे जल बरसाने लगे। सात दिन और सात रात पर्यन्त गाड़ी के जुए, मूसल एवं मुट्ठी जैसी मोटी घटाओं से वृष्टि होती रही। छन्त्र रत्न द्वारा उपसर्ग से रक्षा तए णं से भरहे राया उप्पिं विजयक्खंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ २ त्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणियन्वो जाव दुवालसजोयणाई तिरियं पवित्थरइ तत्थ साहियाई, तए णं से भरहे राया सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ २ ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णं णवणउइसहस्सकंचणसलागपरिमंडियं महरिहं अउज्झं णिव्वणसुपसत्थविसिट्ठलट्ठकंचणसुपुट्ठदंडं मिउराययवट्टलट्ठअरविंदकण्णिय-समाणरूवं वत्थिपएसे य पंजरविराइयं विविहभत्तिचित्तं मणिमुत्तपवालतत्त-तवणिजपंचवण्णियधोयरयणरूवरइयं रयणमरीईसमोप्पणाकप्पकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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