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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र स्थान, आपण-पण्य स्थान आदि की रचना में कुशल था । इकासी प्रकार के वास्तुक्षेत्र का विशेषज्ञ था । उनके गुणों का ज्ञाता एवं विधिवेत्ता था । शिल्पशास्त्र में प्रतिपादित पैंतालीस देवताओं के उचित सन्निवेश के विधिक्रम (वास्तु परिज्ञा ) का ज्ञाता था । विविध प्रकार के भवनों, भोजनशालाओं, दुर्गों की भित्तियों, वासगृह - शयनागार के विधिवत निर्माण में कुशल था । काष्ठ आदि को काटने-छांटने में, नाप-जोख कुशाग्र बुद्धि युक्त था । जलयान, भूमियान तथा जमीन एवं पानी के भीतर सुरंग बनाने, विभिन्न प्रकार के यंत्र, खाइयाँ आदि के शुभ-अशुभ समय में निर्माण में निपुण था । शब्द शास्त्र में, वास्तु प्रदेश - विविध दिशाओं में बनाने योग्य भवनों में कुशल था। वह निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न फलवती बेलों (गर्भिणी) कन्या - निष्फल या भविष्य में फल देने वाली बेलों, वृक्षों तथा उन पर छाई हुई लताओं के गुण दोषों को आकलित करने में समर्थ था । गुणाढ्य - प्रज्ञा, हस्तलाघव आदि में निपुण था । सोलह प्रकार के प्रासादों के निर्माण में कुशल था । शिल्पशास्त्र में प्रतिपादित चौसठ प्रकार के भवनों की रचना में निपुण था । नद्यावर्त, वर्द्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशिष्ट प्रकार भवनों ध्वजाओं, देव स्थानों, अनाज के कोष्ठागारों की रचना में, उपयोग में आने वाले अपेक्षित काष्ठ, गिरि-दुर्ग आदि के निर्माण में चयन हेतु उपयुक्त पर्वतीय ग्रह, खात-सरोवर ( गड्डा ), वाहन आदि के समुचित निर्माण में कुशल था । गाथा - वह शिल्पी अनेक गुणों से युक्त था। राजा भरत को अपने पूर्व संचित तप एवं संयम के परिणाम स्वरूप प्राप्त उस वर्धकिरत्न ने कहा स्वामी! मैं आपके लिए क्या रचना करूं? ॥१॥ १३८ - राजा के आदेशानुसार उसने देव कर्मविधि से दिव्य क्षमता से मुहूर्त्तभर में छावनी एवं आवासगृह की रचना की ॥ २॥ उसने ऐसा कर पौषधशाला का निर्माण किया तथा राजा के पास उपस्थित हुआ उसके आज्ञानुरूप कार्य हो जाने की सूचना दी। इससे आगे का वर्णन पहले की तरह है यावत् वह स्नानागार से निष्क्रांत हुआ, बाहरी सभाभवन में चातुर्घण्ट अश्वरथ के पास आया । (६१) तए णं तं धरणितलगमणलहुं तओ बहुलक्खणपसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवट्टियचित्ततिणिसदलियं जंबूणयसुकयकूबरं कणयदंडियारं पुलयवरिंद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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