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________________ १६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र शंका - स्त्री का चित्र देखने से विचार विकृत बन सकते हैं, तो मूर्ति से शुभ भाव क्यों नहीं? ___ समाधान - स्त्री चित्र देखकर विकृति आना, उदय भाव में होने के कारण, इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय के प्रवाह में जल्दी बह जाती हैं। लेकिन शुभ भावों, विशिष्ट क्षयोपशम और ज्ञान के पुरुषार्थ से उन्हें जबरदस्ती खींचकर जगाना पड़ता है। जैसे नदी के प्रवाह में बहना सरल है और प्रवाह से विपरीत चलना मुश्किल है। इसी प्रकार स्त्री के चित्र से हजारों लोग प्रतिदिन विकृत मानस बना सकते हैं और मूर्ति से वैराग्य की प्राप्ति का कोई उदाहरण, किसी भी शास्त्र में नहीं है। फिर भी कभी कोई विशिष्ट आत्मा, मूर्ति को देखकर वैराग्य प्राप्त कर भी ले, तो भी मूर्ति वंदनीय नहीं है। क्योंकि विशिष्ट ज्ञानी आत्मा के लिए संसार का कोई भी पदार्थ चिंतन करने से वैराग्य का कारण बन सकता है। फिर भी वह पदार्थ वंदनीय नहीं होता। जैसे उत्तराध्ययन सूत्र के २१ वें अध्ययन में समुद्रपाल ने चोर को देखकर वैराग्य पाया। उत्तराध्ययन अध्ययन ६ में नमिराज ने चूड़ियों के शब्दों से वैराग्य पाया। उत्तराध्ययन के अध्ययन १८ में करकंडु राजा ने बैल को देखकर वैराग्य प्राप्त किया। पवन पुत्र हनुमान जी ने डूबते हुए सूर्य को देखकर वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा ली। ऐसे अनेक उदाहरण शास्त्रों में भरे पड़े हैं। परन्तु फिर भी जो मूर्ति के पक्षधर हैं वे भी इस चोर, चूड़ी, बैल और सूर्य को वंदनीय नहीं मानते हैं, क्योंकि इनमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र के गुण नहीं हैं। अधिक क्या कहा जाय! पदार्थ तो सामान्य है, परन्तु साक्षात् सचेतन अवधिज्ञान से युक्त, तीर्थंकरों का असली शरीर भी, दीक्षा लेने के पहले, किसी साधु और श्रावक के द्वारा वंदनीय नहीं होता है, तो फिर भगवान् का कारीगर द्वारा कल्पित बनाया हुआ नकली जड़ शरीर (मूर्ति) कैसे वंदनीय हो सकता है? बुद्धिमान चिंतन करें। शंका - मूर्ति को देखकर यदि ‘भक्ति रूप श्रद्धा' हो जाये तथा दीक्षा ले कर मोक्ष प्राप्त कर ले तो फिर मूर्ति पूजनीय क्यों नहीं हो सकती? समाधान - विशिष्ट क्षयोपशम वाले अपवाद स्वरूप चिंतनशील व्यक्ति, मूर्ति को देखकर कदाचित् वैराग्य प्राप्त कर अपना आत्म-कल्याण कर भी ले तो भी मूर्ति पूजनीय नहीं है, जैसेसमुद्रपाल, करकंडू राजा आदि महापुरुषों ने चोर, बैल आदि को देखकर वैराग्य प्राप्त किया, तो भी चोर, बैल आदि पूजनीय नहीं होते हैं। इसी प्रकार मूर्ति भी पूजनीय नहीं हो सकती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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