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________________ १२३ प्रव्रज्यादि - विषयक विधि-निषेध rinkikakkarkarirekakakakakakakakakakakiran k ari कप्पइ णिग्गंथाणं णिग्गंथिं अण्णेसिं अट्ठाए पव्वावेत्तए वा जाव सं जित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥१८२॥ __णो कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गंथं अप्पणो अट्ठाए सव्वावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा जाव उहिसित्तए वा धारेत्तए वा॥१८३॥ ___ कप्पइ णिग्गंथीणं णिग्गंथं णिग्गंथाणं अट्ठाए पव्वावेत्तए वा मुंडावेत्तए वा जाव उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा॥१८४॥ कठिन शब्दार्थ - अप्पणो अट्ठाए - अपने प्रयोजन के लिए, पव्वावेत्तए - प्रव्रजित करना, मुंडावेत्तए - मुण्डित - लुंचित करना, (सिक्खावेत्तए) सेहावेत्तए - शिक्षित करना, उवट्ठावेत्तए - उपस्थापित करना, संवसित्तए - साथ में रहना, संभुंजित्तए - साथ बैठकर भोजन करना, अण्णेसिं - अन्यों के लिए। भावार्थ - १८१. साधुओं को किसी दीक्षार्थिनी महिला को अपने लिए - अपनी शिष्या साध्वी के रूप में प्रव्रजित - दीक्षित करना, मुण्डित करना, शिक्षित करना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ निवास करना, साथ बैठकर आहार करना, स्वल्प काल के लिए दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना नहीं कल्पता। . .. . १८२. साधुओं को किसी दीक्षार्थिनी महिला को औरों (आचार्य या उपाध्याय) के लिए साध्वी के रूप में प्रव्रजित करना यावत् साथ में बैठकर आहार करना, स्वल्प काल के लिए दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना कल्पता है। __१८३. साध्वियों को किसी दीक्षार्थी पुरुष को अपने लिए साधु के रूप में प्रव्रजित करना, मुण्डित करना यावत् दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना नहीं कल्पता। १८४. साध्वियों को साधुओं के लिए किसी दीक्षार्थी पुरुष को साधु के रूप में प्रव्रजित करना, मुण्डित करना यावत् दिशा, अनुदिशा का निर्देश करना, धारण करना कल्पता है। विवेचन - जैन भिक्षु संघ में सामान्यतः आचार्य अथवा उपाध्याय ही किसी दीक्षार्थी या दीक्षार्थिनी को दीक्षित करने के अधिकारी माने गए हैं। कोई साधु या साध्वी अपने लिए - अपने शिष्य या शिष्या के रूप में किसी को दीक्षित करने के अधिकारी नहीं होते। किन्तु विशेष परिस्थिति में कोई विशिष्ट आगमवेत्ता विद्वान् साधु आचार्य या उपाध्याय के आदेश से तथा आगमज्ञा, विदुषी साध्वी आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के आदेश से दीक्षार्थी दीक्षार्थिनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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