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________________ व्यवहार सूत्र - सप्तम उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ संभोग से बना है। जैन आगमों में यह शब्द साधु-साध्वियों के उपधि आदि आवश्यक वस्तुओं के लेन-देन आदि के संबंध में प्रयुक्त हुआ है। . भाषा-शास्त्र (Linguistics) में शब्दों के अर्थात्कर्ष, अर्थोपकर्ष, अर्थविस्तार तथा अर्थ संकोच आदि के रूप में अर्थ परिवर्तन की विभिन्न दशाओं का उल्लेख है। काल-क्रम से जन-जन द्वारा परिवर्तित प्रयोग के आधार पर शब्दों के अर्थ बदलते जाते हैं। उदाहरणार्थ जुगुप्सा शब्द को लें 'गोप्तुमिच्छा जुगुप्सा'। कभी इस शब्द का अर्थ रक्षा करने की इच्छा था, जिसकी रक्षा की जाती है, सामान्यतः उसको गोपित कर - छिपाकर रखा जाता है। इसलिए आगे चलकर जुगुप्सा का अर्थ छिपाना हो गया और कालान्तर में बुरी या अशोभनीय बात को छिपाया जाता है, इस अभिप्राय को लेकर इस शब्द का अर्थ घृणा हो गया। आज इसी अर्थ में यह शब्द व्यवहृत है। प्राकृत का संभोय - संभोग शब्द लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जैन साधु-साध्वियों के आवश्यक वस्तुओं के पारस्परिक लेन-देन आदि के व्यवहार के अर्थ में था। आज भी जैन साधु-साध्वी इसी अर्थ में इस शब्द का प्रयोग करते हैं। किन्तु लोक में इस (संभोग शब्द) का अर्थ काल-क्रम से बदलता-बदलता - 'स्त्री-पुरुष के यौन-संबंध' के अर्थ में आकर टिक गया। हिन्दी आदि आर्य परिवारगत आधुनिक भाषाओं में आज इसका इसी अर्थ में प्रयोग होता है। इसीलिए प्रस्तुत आगम में जहाँ संभोय के संज्ञा, तद्धित तथा क्रिया आदि के रूपों का प्रयोग हुआ है, वहाँ अनुवाद एवं विवेचन में संभोग शब्द नहीं दिया गया है। जैन परंपरा से अपरिचित हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों में इससे भ्रान्ति पैदा हो सकती है। - संबंध-विच्छेद-विषयक विधि-निषेध जे णिग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, णो ण्हं कप्पड़ (णिग्गंथाणं) पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, कप्पइ ण्हं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएजा-अहं णं अज्जो ! तुमाए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पच्चक्खं संभोगं विसंभोगं करेमि, से य पडितप्पेजा एवं से णो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, से य णो पडितप्पेजा एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए॥१७९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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