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________________ व्यवहार सूत्र - षष्ठ उद्देशक ११४ *********★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ - __१७३. जहाँ बहुत-सी स्त्रियाँ और पुरुष मैथुन सेवन करते हों, वहाँ यदि कोई श्रमण निर्ग्रन्थ मैथुन प्रतिसेवन का संकल्प किए हुए अपने स्खलित होते हुए अचित्त वीर्य-पुद्गलों को निष्कासित करता है तो उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक(गुरु)परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इन सूत्रों में ब्रह्मचर्य-रक्षा को ध्यान में रखते हुए वैसे प्रसंगों को अपवारित, निवारित करने की प्रेरणा प्रदान की गई है, जो ब्रह्मचर्य महाव्रत को खण्डित करते हैं। ___ वैसे तो पांचों ही महाव्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके अनुपालन में प्रत्येक श्रमणनिर्ग्रन्थ सदा जागरूक रहता है। किन्तु उनमें भी ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन अत्यन्त दुर्गम, दुष्कर माना गया है। यदि आत्मस्थिरता, अन्तःशक्ति, संकल्प दृढता में जरा भी कमी आ जाए तो साधक अब्रह्मचर्यात्मक, मैथुनसेवनात्मक स्थितियों को परिवीक्षित कर स्वयं भी अप्राकृतिक कर्म, दूषित संकल्प आदि द्वारा वीर्य-पात रूप जघन्य कर्म कर डालता है। वैसा करना सर्वथा परित्याज्य, घृणास्पद एवं पापपूर्ण है और वैसा करने वाला तदनुरूप तीव्र, तीव्रतर प्रायश्चित्त का भागी होता है, जैसा इन सूत्रों में वर्णित हुआ है। . ... उपर्युक्त दोनों सूत्रों में जो प्रायश्चित्त का विधान किया गया है - वह मानसिक (वैचारिक) प्रतिसेवना की अपेक्षा से समझना चाहिए। कायिक प्रतिसेवना का तो आठवाँ "मूल" प्रायश्चित्त आता है। : जैन धर्म में ब्रह्मचर्य की अविचल साधना हेतु नव बाड़, दशम कोट आदि के रूप में परिरक्षण के. विविध उपायों का बड़ा मार्मिक विश्लेषण हुआ है। वह सब इसलिए है कि श्रमण निर्ग्रन्थ किसी भी प्रकार अब्रह्मचर्यमूलंक पापपंक में पड़कर अपनी साधना को अपवित्र न बनाएं। वैदिक धर्म में भी ब्रह्मचर्य का अत्यधिक महत्त्व स्वीकार किया गया है। कहा गया है"मरण बिन्दुपातेन, जीवन बिन्दुधारणात्" अर्थात् वीर्य-पात - ब्रह्मचर्य से पतन'मृत्यु' है तथा वीर्य-धारण - ब्रह्मचर्य का पूर्णरूपेण परिपालन 'जीवन' है। बौद्ध धर्म में काम को 'मार' कहा गया है। 'मारयतीति मारः' - जो मार डालता हो, साधनामय जीवन को विध्वस्त कर देता हो, वह मार - काम या अब्रह्मचर्य है। वहाँ अब्रह्मचर्य के परित्याग को 'मार विजय' कहा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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