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________________ १०८ *******************★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ व्यवहार सूत्र - षष्ठ उद्देशक णिगिज्झिय - निगृहीत-निगृहीत कर - पकड़-पकड़ कर, पकोडेमाणे - प्रस्फोटित करते.. हुए - उनमें लगी धूल आदि को दूर करते हुए, पमजेमाणे - प्रमार्जित करते हुए - चस्त्र आदि से उन्हें पोंछते हुए, अइक्कमइ - अतिक्रम - उल्लंघन करता है, उच्चारपासवणं - - मल-मूत्र, विगिंचमाणे - त्याग करते हुए, विसोहेमाणे - विशुद्धि करते हुए, पभू - प्रभु - समर्थ या शारीरिक सामर्थ्य अथवा शक्ति युक्त, वसमाणे - वास करते हुए, बाहिं - बाहर। भावार्थ - १६१. गण में आचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशेष - वैशिष्ट्य या अतिशय प्रतिपादित हुए हैं, वे इस प्रकार हैं - (१) आचार्य या उपाध्याय उपाश्रय के भीतर आएं तब वे अपने पैरों को निगृहीत कर उनमें लगी धूल आदि को दूर करते हुए, वस्त्र आदि से पैरों को पोंछते हुए मर्यादा का अतिक्रमण - उल्लंघन नहीं करते। १६२. (२) आचार्य या उपाध्याय उपाश्रय के भीतर मल-मूत्र विसर्जित करें, विशुद्धि करें तो उन द्वारा ऐसा किया जाना मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाता। -. १६३. (३) आचार्य या उपाध्याय शारीरिक दृष्टि से समर्थ होते हुए भी यदि वैयावृत्य की - अन्य साधुओं से सेवा लेने की इच्छा करें या न करें अर्थात् इच्छा हो तो सेवा करवाएँ, इच्छा न हो तो सेवा न करवाएँ। ऐसा करते हुए वे मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। . १६४. (४) आचार्य या उपाध्याय उपाश्रय के भीतर एक रात या दो रात (एकाकी) प्रवास करते हुए मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। १६५. (५) आचार्य या उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक रात या दो रात (एकाकी) प्रवास करते हुए मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। ___ १६६. गण में गणावच्छेदक के दो वैशिष्ट्य या अतिशय प्रतिपादित हुए हैं, वे इस प्रकार हैं (१) गणावच्छेदक उपाश्रय के भीतर एक रात या दो रात (एकाकी) प्रवास करते हुए मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। १६७. (२) गणावच्छेदक उपाश्रय के बाहर एक रात या दो रात (एकाकी) प्रवास करते हुए मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते। विवेचन - गण या गच्छ में आचार्य और उपाध्याय का अत्यधिक महत्त्व है। संघ के संचालन में गच्छवर्ती साधुओं को आचार में मर्यादा एवं नियमों के अनुरूप गतिशील बनाए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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