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________________ . व्यवहार सूत्र - षष्ठ उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ httttttituti**** १०६ **** ** लागू होती हैं। वह भी भिक्षु की तरह सूचित मर्यादाओं का पालन करते हुए ही पारिवारिकजनों के यहाँ दर्शन देने, भिक्षा लेने आदि हेतु जा सकती हैं। _ 'ज्ञा' धातु के आगे 'क्त' प्रत्यय लगाने से 'ज्ञात' बनता है। "ज्ञायते येन - ज्ञापितो वा भवति कोऽपि येन स ज्ञातः।" जिसके द्वारा किसी की पहचान होती है, परिचय प्राप्त होता है, उसे ज्ञात कहा जाता है। पितृ कुल, श्वसुर कुल आदि के द्वारा व्यक्ति की पहचान होती है। इसलिए इन्हें ज्ञात कहा जाता है। अत एव ये पारिवारिक या कौटुम्बिक-जनों के सूचक हैं। उनके यहाँ दर्शन देने, भिक्षा लेने आदि प्रयोजनों से साधु या साध्वी के जाने के संबंध में इन सूत्रों में विधि-निषेध मूलक वर्णन है। प्रत्येक साधु या साध्वी के लिए सामान्य रूप में यह मर्यादा है कि वे भिक्षा आदि हेतु कहीं भी जाएं, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि की आज्ञा लेकर ही जाएं। . यदि वे अपने पारिवारिकजनों के यहाँ दर्शन देने, भिक्षा लेने आदि हेतु जाना चाहें तो उन्हें गच्छ प्रमुख, स्थविर आदि से विशेष रूप से आज्ञा लेना आवश्यक है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि यदि आवश्यकतावश घी, दूध, दही आदि विगय (विकृत - विकारोत्पादक पदार्थ) लेने हेतु जाना चाहें तो भी उन्हें गच्छप्रधान की विशेष रूप से आज्ञा लेनी होती है। . घी, दूध, दही आदि को विगय इसलिए कहा जाता है कि इनका अनावश्यक, निरन्तर, प्रचुर रूप में प्रतिसेवन करने से मनोविकारों की उत्पत्ति आशंकित है, इसलिए शारीरिक दुर्बलता, तपजनित क्षीणता एवं चिकित्सा में पोपयोगिता आदि के कारण ही उनके लिए इनका सेवन विहित. है। श्रमणं दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् साधु-साध्वी संसार से सर्वथा पृथक् हो जाते हैं। उनके सभी सांसारिक संबंध समाप्त हो जाते हैं। किन्तु फिर भी मानवीय प्रवृत्ति के कारण किन्हीं के मन में पारिवारिकजनों के निकट संपर्क से मोह उत्पन्न होने की आशंका संभावित है। इसी कारण इन सूत्रों में एकाकी साधु या एकाकिनी साध्वी को स्थविरों से विशेष रूप से आज्ञा लेकर ही जाना कल्पित कहा गया है। आज्ञा के बिना जाना कल्पविरुद्ध माना गया है। .. अल्पश्रुत, अल्पागम साधु या साध्वी के लिए यह विधान किया गया है कि वे बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ साधु या साध्वी के साथ ही अपने पारिवारिकजनों के यहाँ जाएँ। इन सूत्रों में आहार लेने के संबंध में जो विधि-निषेधमूलक वर्णन है, इसका संबंध खास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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