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________________ - ११५ सूर्योदय से पहले एवं सूर्यास्त के पश्चात्त आहारग्रहण विषयक प्रायश्चित्त *********AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA सूर्यास्त के संबंध में संदिग्ध ज्ञानयुक्त भिक्षु अशन, पान, खादिम, स्वादिम स्वीकार करता हुआ यदि जाने - सूरज नहीं उगा है या सूर्यास्त हो गया है तो उस समय जो आहार उसके मुख, हाथ या पात्र में हो, उसे परठ दे तथा मुख आदि को शुद्ध कर ले। ऐसा कर वह जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। __ यदि वह उस आहार को स्वयं खा ले या दूसरे साधु को दे दे तो उसे रात्रि भोजन का दोष लगता है। तदनुसार वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। ८. सूर्योदय के अनन्तर और सूर्यास्त के पूर्व भिक्षाचर्या में वर्तनशील तथा सूर्योदय या सूर्यास्त की असंदिग्घता जानने में असमर्थ भिक्षु अशन, पान आदि चतुर्विध आहार ग्रहण करता हुआ यदि यह जाने - . सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्य अस्त हो गया है, उस समय यदि आहार का कौर उसके मुँह में, हाथ में या पात्र में है तो वह उसे परिष्ठापित कर दे तथा अपने मुँह आदि को शुद्ध कर ले तो जिनेश्वर देव की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। यदि वह उस आहार को स्वयं खाले या दूसरे साधु को दे दे तो उसे रात्रि भोजन का .. दोष लगता है। तदनुसार वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। ९. सूर्योदय के अनन्तर या सूर्यास्त के पूर्व भिक्षाचारी के नियम वाला भिक्षु जो सूर्योदय या सूर्यास्त के ज्ञान में असमर्थ हो, अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता हुआ यह जाने कि सूर्योदय नहीं हुआ है या सूर्यास्त हो गया है, उस समय जो आहार उसके मुख, हाथ या पात्र में हो, उसे परठ दे तथा अपने मुंह आदि को शुद्ध कर जिनेश्वर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। ___यदि वह उस आहार को स्वयं खा ले या दूसरे साधु को दे दे तो उसे रात्रि भोजन का दोष लगता है। तदनुसार वह अनुद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का भागी होता है। विवेचन - इस सूत्र में उद्गतवृत्तिक, संस्तृत, असंस्तृत, निर्विचिकित्स एवं विचिकित्स शब्द विशेष रूप से प्रयुक्त हैं। उद्गगतवृत्तिक - "उद्गगते उदिते सूर्ये वृत्तिः भिक्षादि संयमोचित व्यवहारो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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