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________________ बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक १०८ ****************************************** ********** ***** जहाँ यह जाने कि एरावती नदी कुणाला नगरी के पास से बह रही है, यदि एक पैर पानी में तथा दूसरा पैर ऊपर उठाए हुए (थल में) उसे पार कर सके तो एक मास में दो बार . या तीन बार उत्तीर्ण या संतीर्ण करना कल्पता है। यदि वह इस प्रकार न किया जा सके तो एक महीने में दो बार या तीन बार उसे उत्तरित या संतरित करना नहीं कल्पता। विवेचन - इस सूत्र में एरावती नदी के संदर्भ में एक पैर जल में तथा एक पैर थल में रखते हुए पार करने का जो विवेचन हुआ, उस संदर्भ में ज्ञातव्य है - थल का प्रचलित अर्थ स्थल है। जब एक भिक्षु पानी में चलता हुआ नदी को पार करता है तो थल या जमीन पर पैर रखने की तो बात ही घटित नहीं होती है। यह शब्द यहाँ अपने सीधे व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। "स्थिति लातीति स्थलम्" - के अनुसार इसका अर्थ पानी से ऊपर दूसरे पैर को स्थित रखने या टिकाए रखने के अर्थ में है। स्थल शब्द का भूमि शब्द प्रवृत्तिलभ्य है। प्रवृत्तिलभ्य अर्थ वह होता है जो व्युत्पत्ति के सर्वथा अनुरूप न रहता हुआ किसी एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। यहाँ महानदी शब्द में अन्य जलविपुल नदियों का भी अध्याहार हो जाता है। · यह सर्वविदित है कि नाव आदि से नदी को पार करने से जीवों की विराधना होती है। इसके अलावा नाविक आदि को शुल्क आदि भी देना पड़ सकता है। स्वयं पार करने पर भी षट्कायिक जीवों की विराधना तो होती ही है। अत एव विशेष कारणवश माह में एक बार ही पार करने का विधान किया गया है। इस संदर्भ में विशेष विवेचन निशीथ सूत्र में किया गया है। . एक पैर ऊपर उठाकर केवल एक पैर से ही नदी पार करने का जो विधान किया गया है, वह तभी संभव है जब नदी उथली हो अर्थात् जंघार्ध प्रमाण (जंघा से नीचे) जल हो। घास-फूस से आवृत छत वाले स्थान में प्रवास का विधान से तणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसुवा पलालपुंजेसु वा अप्पण्डेसु अप्पपाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पुस्सेसु अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टिय-मक्कडगसंताणएसु अहेसवणमायाए णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हासु वत्थए॥३३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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