SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वी द्वारा पुरुषत्व प्राप्ति हेतु निदान kakakakakkaxxxxxxxxxxxxxxxxxxxkakakakakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkk आस्वादन योग्य, पत्थणिज्जा - प्रार्थनीय - चाहने योग्य, पीहणिज्जा - स्पृहणीया - स्पृहा करने योग्य, अभिलसणिज्जा - अभिलाषा करने योग्य। भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! मैंने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है, वही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सभी जीव इसमें स्थित रहते हुए सर्व दुःख नाश करते हैं। इस धर्म की ग्रहण-आसेवन रूप साधना में समुद्यत साध्वी जब भूख, प्यास सहन करती है यावत् उत्थित काम आदि परीषह को पराक्रमपूर्वक सहन करते हुए जब किसी विशुद्ध मातृ-पितृ पक्षीय उग्रवंशीय या भोगवंशीय पुरुष को (विविध सुख - विलासपूर्वक) आतेजाते देखती है यावत् उनसे दास-दासी पूछते हैं कि आपको कैसा भोजन रुचिकर लगता है? तो ऐसा देखकर वह निर्ग्रन्थिनी (साध्वी) निदान करती है - . स्त्री का जीवन - स्त्रीत्व दुःखमय है। उसके लिए किसी अन्य गाँव यावत् सन्निवेश (गाँव का निकटवर्ती स्थान) में जाना कितना दुर्गम - कठिन है। जिस प्रकार मांसपेशिका (मांस का टुकड़ा), आम की फांक, बिजौरा फल की फांक, आम्रातक की फांक, गन्ने का टुकड़ा या सेमल की फली अनेक लोगों के लिए आस्वादनीय, प्रार्थनीय, स्पृहणीय और अभिलषणीय होती है, उसी प्रकार स्त्री भी अनेक लोगों द्वारा आस्वादनीय यावत् अभिलषणीय - चाहने योग्य होती है। इसलिए स्त्रीत्व (स्त्री का जीवन) दुःखरूप है। पुरुष का जीवन श्रेष्ठ होता है, सुखमय होता है। ____यदि मेरे द्वारा सम्यक् रूप में आचरित इस तप, नियम ........ आदि का फल हो यावत् आगामी भव में पुरुष संबंधी उत्तम काम-भोगों का सेवन करते हुए स्थित रहूँ तो मेरे लिए श्रेष्ठ होगा। आयुष्मान् श्रमणो! यदि साध्वी इस प्रकार का निदान कर आलोचना, प्रतिक्रमण नहीं करती यावत् कालधर्म को प्राप्त होकर किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होती है। वहाँ वह अत्यंत ऋद्धिशाली यावत् विपुल सुखभोग प्राप्त करती है। उस देवलोक से आयुक्षय, भवक्षय एवं स्थितिक्षय होने पर च्यवन कर इन उग्रपुत्रों के वंश में पूर्वानुसार बालक के रूप में उत्पन्न होता है यावत् दास-दासियों से घिरा रहता है, वे उसे पूछते रहते हैं कि आपके लिए क्या रुचिपूर्ण भोजन बनाएं? . इस प्रकार का (पूर्व निदान कृत) पुरुष यावत् अभवी होता है - धर्म श्रवण के योग्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy