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________________ ७८ आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन श्लेष्म जल्लसिंघाण परिष्टापनिका समिति, इन पांचों समितियों में जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छह प्रकार के जीवों की हिंसा करने से जो अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्लेश्या, इन छहों लेश्याओं के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूं। सात भय स्थानों से, आठ मद के स्थानों से। नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से - उनका सम्यक् पालन न करने से, दश विध श्रमणधर्म की विराधना से, ग्यारह श्रावक प्रतिमाओं एवं बारह भिक्षु की प्रतिमाओं से - उनकी श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आसेवना अच्छी तरह न करने से, तेरह क्रिया के स्थानों से, चौदह जीवों के समूह से, पन्द्रह परमाधार्मिकों जैसा भाव या आचरण करने से, सूत्रकृतांग सूत्र के सोलह अध्ययनों से, सतरह प्रकार के असंयम से, अठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य में वर्तने से, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययनों से- तदनुसार संयम में न रहने से, बीस असमाधि के स्थानों से, इक्कीस शबलों से, बाईस परीषहों से यानी उनको सहन न करने से, सूत्रकृतांग सूत्र के २३ अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार आचरण न करने से, चौबीस देवों से, पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं से, दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्र के छब्बीस उद्देशन कालों से, सत्ताईस साधु के गुणों से यानी उनको पूर्णतः धारण न करने से, आचारांग तथा निशीथ सूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से, उनतीस पापश्रुत के प्रसंगों से, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों से, सिद्धों के ३१ गुणों से, बत्तीस योग संग्रहों से और तेतीस आशातनाओं से जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ। तेतीस आशातनाएँ - १ अर्हन्त २ सिद्ध ३ आचार्य ४ उपाध्याय ५ साधु ६ साध्वी ७ श्रावक ८ श्राविका ९ देव १० देवी ११ इहलोक १२ परलोक १३ केवली प्ररूपित धर्म १४ देव मनुष्य असुरों सहित समग्रलोक, १५ सर्व प्राण, भूत, जीव, सत्व १६ काल १७ श्रुतदेवता १९ वाचनाचार्य इन सबकी आशातना से तथा २० सूत्र के अक्षर उलट - पलट पढ़े हो २१ एक ही शास्त्र में अन्यान्य स्थान पर दिये गये एकार्थक सूत्रों को एक स्थान पर लाकर पढ़ा हो २२ हीन अक्षर पढ़े हो २३ अधिक अक्षर पढ़े हो, २४ पदहीन पढ़ा हो २५ विनय रहित पढ़ा हो २६ अस्थिर योग से पढ़ा हो, २७ उदात्त आदि स्वर रहित पढ़ा हो २८ शक्ति से अधिक पढ़ाया हो २९ आगम को बुरे भाव से ग्रहण किया हो ३० अकाल में स्वाध्याय किया हो ३१ काल में स्वाध्याय न किया हो ३२ अस्वाध्याय में स्वाध्याय किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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