SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन ३. परिवर्तना - सूत्र-वाचना विस्मृत न हो जाय इसलिये सूत्र पाठ को बार-बार गुणानिका-परिवर्तना करना, फेरना परिवर्तना है। ४. अनुप्रेक्षा - सूत्र वाचना के संबंध में तात्त्विक चिंतन करना, अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा, . स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण अंग है। ५. धर्मकथा - सूत्र-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा के बाद जब तत्त्व का वास्तविक स्वरूप समझ में आ जाय, तब धर्मोपदेश देना, धर्मकथा है। बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय अंतरंग तप है। स्वाध्याय का फल बताते हुए उत्तराध्ययन. सूत्र के अध्ययन २९ में प्रभु ने फरमाया है कि - 'सज्झाएणं णाणावरणिज्ज कम्म खवेइ' - स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। ज्ञान का अलौकिक प्रकाश जगमगा उठता है। स्वाध्याय के द्वारा ही हित और अहित का ज्ञान होता है। पाप पुण्य का पता चलता है, कर्त्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान होता है। स्वाध्याय के द्वारा ही धर्म, अधर्म का पता लगा सकते हैं और अधर्म का त्याग कर धर्म में प्रवृत्ति करते हुए अपने जीवन : को सुखी बना सकते हैं। प्रतिलेखना और प्रमार्जना - वस्त्र, पात्र आदि को अच्छी तरह खोल कर चारों ओर से देखना प्रतिलेखना है और रजोहरण तथा पूंजणी के द्वारा अच्छी तरह साफ करना प्रमार्जना है। साधक के पास जो वस्त्र, पात्र आदि उपधि हो, उसकी दिन में दो बार - प्रातः और सायं प्रतिलेखना करनी होती है। उपधि को बिना देखे-भाले उपयोग में लाने से हिंसा का दोष लगता है। उपधि में सूक्ष्म जीवों के उत्पन्न हो जाने की अथवा बाहर के जीवों के आश्रय लेने की संभावना रहती है। अतः प्रत्येक वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए जीवों को देखना चाहिए और यदि कोई जीव दृष्टिगत हो तो उसे प्रमार्जन के द्वारा किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुंचाए बिना एकान्त स्थान में धीरे से छोड़ देना चाहिये। यह अहिंसा महाव्रत की सूक्ष्म साधना है। धर्म के प्रति जागरूकता है। अतः प्रतिलेखना और प्रमार्जन आवश्यक है। दुष्पतिलेखना-दुष्प्रमार्जना - आलस्यवश शीघ्रता में अविधि से देखना, दुष्प्रतिलेखना है और शीघ्रता में बिना विधि से उपयोगहीन दशा में प्रमार्जन करना, दुष्प्रमार्जना है। शंका - चाउक्काल सज्झायस्स का पाठ बोलना क्यों आवश्यक है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy