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________________ ५८ आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन 'छूटू पिछला पाप से नवा न बांधू कोय' यह उक्ति सिद्ध होती है अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, ये पांच आचार कहलाते हैं। प्रतिक्रमण से पंचाचार की शुद्धि होती है। पंचाचार की विशुद्धि होने से आत्मा कर्ममल से रहित बनती है और जीवअंत में मोक्ष के अक्षय अव्याबाध सुखों को प्राप्त करता है। प्रतिक्रमण से लाभ प्रतिक्रमण एक ऐसी औषधि के समान है जिसका प्रतिदिन सेवन करने से विद्यमान रोग शांत हो जाते हैं, रोग नहीं होने पर उस औषधि के प्रभाव से वर्ण, रूप, यौवन और लावण्य आदि में वृद्धि होती है और भविष्य में रोग नहीं होते। इसी प्रकार यदि दोष लगे हो तो प्रतिक्रमण द्वारा उनकी शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगा हो तो प्रतिक्रमण चारित्र की विशेष शुद्धि करता है। ___ व्रत में लगे हुए दोषों की सरल भावों से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है। प्रतिक्रमण का लाभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में गौतमस्वामी ने प्रभु से पच्छा की है कि - पडिक्कमणेणं भंते! जीवे कि जणयइ? - हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है? प्रभु फरमाते हैं - "पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिहेइ, पिहिय वयच्छिद्दे पुणजीवे णिरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरई" अर्थात् प्रतिक्रमण करने वाला व्रतों में बने हुए छिद्रों को बंद करता है फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शबलादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर 'आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को उन्मार्ग से हटा कर सन्मार्ग (संयम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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