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________________ ५२ आवश्यक सूत्र - तृतीय अध्ययन आवस्सियाए - अवश्य करने योग्य। चरणसत्तरि करणसत्तरि रूप श्रमण योग आवश्यक कहे जाते हैं। आवश्यक करते समय प्रमादवश जो रत्नत्रय की विराधना हो जाती है वह आवश्यिकी कहलाती है। अत: 'आवस्सियाए पडिक्कमामि' का अभिप्राय यह है कि मेरे से आवश्यक योग की साधना करते समय जो भूल हो गई हो, उस आवश्यिकी भूल का प्रतिक्रमण करता हूँ। किन्हीं के मत से - जैसे आवश्यक कार्य के लिए अपने स्थान से बाहर जाने पर . 'आवस्सही' 'आवस्सही तीन बार कहा जाता है। उसी प्रकार यहाँ भी.खमासमणो में तेतीस आशातनाओं का पहले चिन्तन करने के लिए गुरु के अवग्रह से बाहर निकलना होता है अर्थात् आवश्यक कार्य करने के लिए - 'पडिक्कमामि' अर्थात् अपने स्थान से पीछे हटता हूँ, आपके अवग्रह से बाहर निकलता हूँ। कोहाए (क्रोधा) - क्रोधवती आशातना - क्रोध के निमित्त से होने वाली आशातना 'क्रोधा' अर्थात् क्रोधवती कहलाती है। सव्वकालियाए - आचार्य जिनदास सर्व अतीतकाल ग्रहण करते हैं - 'सव्वकाले भवा सव्वकालिगी - पक्खिया, चातुम्मासिया, संवच्छरिया इह भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सव्वमतीतद्धाकाले।' . आचार्य हरिभद्र त्रिकाल ग्रहण करते हैं - 'अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागत कालसंग्रहार्थमाह, सर्वकालेन अतीतादिना निवृत्ता सर्वकालिकी तया।' अर्थात् - भविष्य में गुरुदेव की आज्ञा के लिए किसी भी प्रकार की अवहेलना का भाव रखना, संकल्प करना अनागत आशातना है। शंका - इच्छामि खमासमणो दो बार क्यों बोला जाता है? समाधान - जिस प्रकार दूत राजा को नमस्कार कर कार्य निवेदन करता है और राजा से विदा होते समय फिर नमस्कार करता है उसी प्रकार शिष्य कार्य को निवेदन करने के लिये अथवा अपराध की क्षमायाचना करने के लिये गुरु को प्रथम वंदना करता है, खमासमणो देता है और जब गुरु महाराज क्षमा प्रदान कर देते हैं, तब शिष्य वंदना करके दूसरा खमासमणो देकर वापिस लौट जाता है। ____ द्वादशावत वंदन की पूरी विधि दो बार इच्छामि खमासमणो बोलने से ही संभव है। अत: पूर्वाचार्यों ने दो बार इच्छामि खमासमणो बोलने की विधि बतलाई है। || वंदना नामक तृतीय अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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