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________________ वंदना - खमासमणो (द्वादशावत वंदन)विधि ४९ दो प्रवेश, एक निष्क्रमण, इस प्रकार खमासमणो के ये पच्चीस आवश्यक (प्रकार) होते हैं । पच्चीस आवश्यक युक्त विधि इस प्रकार है - - खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर 'इच्छामि खमासमणो' का पाठ प्रारम्भ करें । 'अणुजाणह मे मिउग्गह' शब्द आवे उस समय कुछ आगे झुककर मस्तक नमाना (यह पहला अवनत हुआ) चाहिये फिर 'निसीहि' शब्द बोलते हुए उत्कुटुक (यथाजात) आसन से बैठें। (यह गुरु महाराज के अवग्रह में पहला प्रवेश हुआ।) दोनों कोहनियों को घुटने के बीच में रखे, अंजलि-बद्ध दोनों हाथ मस्तक पर रख कर सिर झुकाते हुए निम्नानुसार आवर्तन करें। दोनों हाथों से सिरसावर्त करने को आवर्तन कहते हैं । 'अ' बोलकर अंजलि को दायें हाथ की तरफ से मस्तक की तरफ घुमाकर बायें हाथ की तरफ लावें बाद में मस्तक पर अंजलि लगाते हुए 'हो' ऐसा बोले। इस प्रकार प्रथम आवर्तन हुआ। इस प्रकार अन्य आवर्तन भी करें। प्रथम के तीन आवर्तन अहो' 'कार्य' 'काय' इस प्रकार दो दो अक्षरों का उच्चारण करने से होता है। इसके बाद 'संफार्स' बोलते हुए गुरु चरणों के स्पर्श के प्रतीक के रूप में दोनों हाथों से या मस्तक से जमीन का स्पर्श करना चाहिये । (यह 'चउसिरे' में से पहला शिर हुआ)पश्चात् दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाते हुए 'खमणिञ्जो' से लेकर 'दिवसो वइक्कतो' तक का पाठ बोले। तत्पश्चात् 'ज' 'त्ता' 'भे', 'ज' 'व' 'णि', 'ज' 'च' 'भे' इस प्रकार तीन-तीन अक्षरों का उच्चारण करते हुए तीन आवर्तन करें । उसके बाद 'खामेमि खमासमणो' बोलते हुए गुरु चरणों के स्पर्श के प्रतीक के रूप में दोनों हाथों से या मस्तक से जमीन का स्पर्श करना चाहिए (यह द्वितीय शिर हुआ)। इसके बाद दोनों हाथों को जोडकर मस्तक पर लगाकर 'खामेमि' से 'वइक्कम' तक पाठ बोलें और 'आवस्सियाए पडिक्कमामि' बोलता हुआ खड़ा होवें। (यह एक निष्क्रमण हुआ) और शेष पाठ ('पडिकमामि' से 'अप्पाणं वोसिरामि' तक) पूरा करें। (इस प्रकार प्रथम खमासमणो में एक अवनत, एक प्रवेश, यथाजात, छह आवर्तन, दो शिर, एक निष्क्रमण और तीन गुप्तियां हुई) इसी प्रकार दूसरी बार 'इच्छामि खमासमणो' की विधि करनी चाहिये किन्तु इसमें 'आवस्सियाए पडिक्कमामि' ये दस अक्षर नहीं कहें तथा यहां पर खड़े न होकर बैठे-बैठे गुरु के अवग्रह में ही पूरा पाठ समाप्त करें। (इस प्रकार दूसरे खमासमणो में एक अवनत, एक प्रवेश, छह आवर्तन, दो शिर * पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ने भी आवश्यक की टीका में आवर्तन की यही विधि दी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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