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________________ चतुर्विंशतिस्तव - चतुर्विंशतिस्तव सूत्र (लोगस्स का पाठ) ४१ पद्मप्रभ स्वामी को, सुपासं - श्री सुपार्श्वनाथ को, चंदप्पहं - श्री चन्द्रप्रभ स्वामी को, जिणं - जिनेश्वर को, सुविहिं - श्री सुविधिनाथ को, पुष्पदंतं - श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ का दूसरा नाम) स्वामी को सीयल - श्री शीतलनाथ को, सिज्जंस - श्री श्रेयांसनाथ को, वासुपुज्जं - श्री वासुपूज्य स्वामी को, विमलं - श्री विमलनाथ को, अणंतं - श्री अनन्तनाथ को, धम्म - श्री धर्मनाथ को, संतिं - श्री शान्तिनाथ को, कुंथु - श्री कुन्थुनाथ को, अरं - श्री अरनाथ को, मल्लिं - श्री मल्लिनाथ को, मुणिसुव्वयं - श्री मुनिसुव्रत स्वामी को, नमिजिणं - श्री नमिनाथ जिनेश्वर को, रिटुनेमिं - श्री अरिष्टनेमि (श्री नेमिनाथ) स्वामी को, पासं - श्री पार्श्वनाथ को, वद्धमाणं - श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी को, एवं - इस प्रकार, मए - मेरे द्वारा, अभित्थुआ - स्तुति किये हुए, विहुयरयमला - पाप रज के मल से रहित, पहीणजरमरणा - जरा (बुढापा) तथा मरण से मुक्त, तित्थयरा - तीर्थंकर, मे - मुझ पर, पसीयंतु - प्रसन्न हों, कित्तिय - कीर्तित - कीर्तन किये हुए, वंदिय - वन्दना किये हुए, महिया - पूजन किये हुए, जे - जो, उत्तमा - उत्तम, सिद्धा - सिद्ध भगवान् हैं, ए - वे, आरुग्ग - आरोग्य - सिद्धत्व अर्थात् आत्म शांति, बोहिलाभं - धर्म प्राप्ति का लाभ, समाहिवरमुत्तमं - सर्वोत्कृष्ट समाधि को, दितु - देवें, चंदेसु - चन्द्रमाओं से भी, णिम्मलयरा - विशेष निर्मल, आइच्चेसु - सूर्यों से भी, अहियं - अधिक, पयासयरा - प्रकाश करने वाले, सागरवर - सागर के समान गंभीर - गम्भीर, सिद्धा - सिद्ध भगवान्, सिद्धिं - सिद्धि (मुक्ति), मम - मुझ को, दिसंतु - देवें। भावार्थ- सम्पूर्ण लोक में धर्म का उद्योत करने वाले, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले, रागद्वेष आदि अन्तरंग शत्रुओं को जीतने वाले केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों की मैं स्तुति करूंगा। श्री ऋषभदेवजी, अजितनाथजी, संभवनाथजी, अभिनन्दनजी, सुमतिनाथजी, पद्मप्रभजी, सुपार्श्वनाथजी, चन्द्रप्रभजी, सुविधिनाथजी, शीतलनाथजी, श्रेयांसनाथजी, वासुपूज्यजी, विमलनाथजी, अनन्तनाथजी,धर्मनाथजी, शान्तिनाथजी, कुन्थुनाथजी, अरनाथजी, मल्लिनाथजी, मुनिसुव्रतजी, नमिनाथजी, अरिष्टनेमिज़ी (नेमिनाथजी), पार्श्वनाथजी और महावीर स्वामी जी। इन चौबीस जिनेश्वरों की मैं वंदना नमस्कार करता हूँ। जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म-रूप मल से रहित हैं, जो जरा और मरण से मुक्त है और धर्मतीर्थ के प्रवर्तक है, वे चौबीसों जिनेश्वर देव मुझ पर प्रसन्न होवें। जिनका वाणी से कीर्तन, वन्दन और भाव-पूजन किया गया है, जो सम्पूर्ण लोक में उत्तम हैं वे सिद्ध (तीर्थकर) भगवान् मुझे आरोग्य-सिद्धत्व अर्थात् आत्मशांति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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