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________________ ३४ आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन ७. यक्षादीप्त - आकाश में चमकते हुए और नाचते हुए यक्ष चिह्नों का दिखाई देना अथवा आकाश में व दिशा विशेष में बिजली सरीखा बीच-बीच में ठहर कर जो प्रकाश दिखाई देता है इसे यक्षादीप्त कहते हैं। जब तक दिखाई दे तब तक अस्वाध्याय काल रहता है। ८. धूमिका - कार्तिक से लेकर माघ मास तक का समय गर्भमास कहलाता है। इस काल में जो धूम्र वर्ण (धूवे जैसी) धुंवर पड़ती है वह धूमिका कहलाती है। इसलिए यह जब तक रहे तब तक इसका अस्वाध्याय काल रहता है। ९. महिका - गर्भमास में जो श्वेत वर्ण की बूंवर पड़ती है वह महिका कहलाती है। यह जब तक रहे तब तक अस्वाध्याय काल रहता है। ___इन दोनों अस्वाध्यायों के समय अप्काय की विराधना से बचने के लिए प्रतिलेखन आदि कायिक, वाचिक कार्य भी नहीं किये जाते हैं। नोट - पर्वतीय क्षेत्रों में कई बार बादलों के गमनागमन करते समय भी ऐसा ही दृश्य होता है। किन्तु उसका स्वभाव धुंवर से भिन्न होता है इसलिए उसका अस्वाध्याय नहीं गिना जाता है। १०. रज उद्घात - स्वाभाविक रूप से वायु से प्रेरित होकर आकाश का चारों ओर धूल से आच्छादित होना और रज का गिरना रज उद्घात कहलाता है। यह जब तक रहे तब तक अस्वाध्याय काल गिनना चाहिये। ये दस आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय हुए। औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१२-१३. हड्डी (अस्थि), मांस और खून (शोणित)। (अ) तिर्यंच पंचेन्द्रिय की हड्डी, रक्त (खून) और मांस ६० हाथ के अन्दर हो तो तीन प्रहर तक तथा मनुष्य की हड्डी, रक्त और मांस १०० हाथ के अन्दर हो तो एक दिन रात का अस्वाध्याय काल मानना। मांस उठा लेने के बाद भी कुछ अंश रहने की संभावना से तीन प्रहर का वर्जन किया है। अच्छी तरह सफाई कर लेने पर उसी समय स्वाध्याय की जा सकती है। रक्त सुख कर विवर्ण हो जावे तथा पड़ा रहे तो तीन प्रहर के बाद भी स्वाध्याय नहीं होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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