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________________ १२ . आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन २. सिद्ध - जिन्होंने आठों कर्मों को क्षय करके आत्म कल्याण साध लिया है, उन्हें 'सिद्ध' कहते हैं। परम विशुद्ध शुक्लध्यान रूपी अग्नि से जिन्होंने समस्त बद्ध कर्मों को भस्मीभूत कर दिया है, जो पुनरागमन रहित ऐसी निवृत्तिपुरी (मुक्ति महल ) के उच्च शिखर पर पहुंच गये हैं, जो प्रख्यात आत्मस्वरूप स्थित और कृतकृत्य हैं, वे सिद्ध भगवान् हैं। __३. आचार्य - चतुर्विध संघ के नायक जो स्वयं पांच आचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार) पालते हैं और चतुर्विध संघ से भी पलवाते हैं, उन्हें 'आचार्य' कहते हैं। ४. उपाध्याय - जो साधु शास्त्रज्ञ हैं और दूसरों को शास्त्र पढाते हैं, उन्हें 'उपाध्याय' . कहते हैं। जिनके समीप रह कर जैनागमों का अध्ययन किया जाय, जिनकी सहायता से जैनागमों का स्मरण किया जाय, जिनकी सेवामें रहने से श्रुतज्ञान का लाभ हो, सद्गुरु परम्परा से प्राप्त जिन वचनों का अध्ययन करवा कर जो भव्य जीवों को विनय में प्रवृत्ति कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। __५. साधु - जो पांच महाव्रत और पांच समिति तथा तीन गुप्ति का पालन करते हैं : और अपने आत्म कल्याण की साधना करते हैं, उन्हें 'साधु' कहते हैं। ज्ञान, दर्शन और . चारित्र के द्वारा मोक्ष को साधने वाले तथा सब प्राणियों में समभाव रखने वाले साधु होते हैं। यहाँ 'सव्व' - सर्व शब्द से सामायिक आदि पांच चारित्रों में से किसी भी चारित्र का पालन करने वाले, भरतादि किसी भी क्षेत्र में विद्यमान, तिर्छा लोकादि किसी भी लोक में विद्यमान और स्त्रीलिंगादि तथा स्वलिंगादि किसी भी लिंग में विद्यमान भाव चारित्र संपन्न छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती सभी साधु-साध्वियों का ग्रहण किया गया है, जो जिनाज्ञानुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाले हैं। ___अथवा 'णमो लोए सव्व साहूर्ण' में जो 'सव्व' - सर्व शब्द ग्रहण किया गया है वह पहले चार पदों के साथ अर्थात् अर्हत्, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय इन चारों पदों के साथ भी लगा देना चाहिए। इन पांच पदों में अहंत और सिद्ध, ये दो देव और शेष तीन पद गुरु के हैं। इन पांच पदों को नमस्कार करने से सभी पापों का नाश होता है, विनयशीलता बढ़ती है और नम्रता आती है। नमस्कार सूत्र का दूसरा प्रचलित नाम है - पंच परमेष्ठी सूत्र। परमेष्ठी शब्द की व्युत्पत्ति (अर्थ) संस्कृत में इस प्रकार है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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