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________________ श्रावक आवश्यक सूत्र - प्रतिक्रमण करने की विधि २६१ .0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 तत्पश्चात् दोनों घुटने खड़े रख कर दोनों हाथ जोड़ कर और सिर झुका कर निग्रंथ प्रवचन (नमो चउवीसाए) का पाठ बोलते हुए 'अब्भुट्टिओमि' शब्द से खड़े हो कर पूरा पाठ बोलें। फिर दो बार द्वादशावर्त गुरु वन्दन सूत्र का पाठ कहें। पश्चात् दोनों घुटने नमाकर घुटनों के ऊपर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक को नीचा नमा कर एक नमस्कार सूत्र कह कर पाँच पदों की वन्दना कहें । फिर पालकी आसन से बैठकर अनंत चौबीसी आदि दोहे, आयरिय उवज्झाए, ढाई द्वीप, चौरासी लाख जीवयोनि, क्षमापना का पाठ व अठारह पापस्थान कह कर चौथा आवश्यक पूरा करें। पांचवें आवश्यक की आज्ञा लेवें । ५. पांचवें आवश्यक में 'प्रायश्चित्त का पाठ' एक नमस्कार सूत्र, प्रतिज्ञा सूत्र, इच्छामि ठामि और उत्तरीकरण सूत्र बोल कर कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव सूत्र का ध्यान करें। कायोत्सर्ग में दैवसिक प्रतिक्रमण में ४ लोगस्स का, रात्रिक प्रतिक्रमण में ४ लोगस्स का, पाक्षिक प्रतिक्रमण में १२ लोगस्स का, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में २० लोगस्स का एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में ४० लोगस्स तथा एक नमस्कार सूत्र का ध्यान करना चाहिए (इसका विशेष वर्णन पृष्ठ १२५ पर देखें)। 'णमो अरहंताणं' कह कर काउस्सग्ग पारें। काउस्संग्ग शुद्धि का पाठ बोल कर एक लोगस्स प्रकट कह कर दो बार 'द्वादशावर्त्त गुरु वन्दन सूत्र' बोलें। फिर छठे आवश्यक की आज्ञा लेवें। ६. छठे आवश्यक में खड़े होकर साधुजी महाराज से अपनी शक्ति अनुसार पच्चक्खाण करें । यदि साधुजी महाराज न हों तो बड़े श्रावक जी से पच्चक्खाण करें । यदि वे भी न हों तो फिर स्वयमेव 'गंठिसहियं मुट्ठिसहियं' का पाठ बोलकर पच्चक्खाण करें। 'प्रतिक्रमण का सम्मुच्चय पाठ' बोलकर बायां घुटना खड़ा करके दो बार 'प्रणिपात सूत्र' कहें। फिर तीन बार वन्दना करके अपने स्वधर्मी भाइयों को खमावें। फिर स्वाध्याय, चौबीसी और स्तवन आदि के द्वारा आत्म-गुणों में वृद्धि करें । नोट - चातुर्मासी व संवत्सरी के दिन दो प्रतिक्रमण किये जाते हैं (ज्ञाता सूत्र अध्ययन ५)। प्रथम दैवसिक प्रतिक्रमण चार आवश्यक तक ही किया जाता है बाद में चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की आज्ञा लेकर छहों आवश्यक (चउवीसत्थव को छोड़ कर) किये जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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