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________________ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय २३. अज्ञान मिथ्यात्व, २४. अविनय मिथ्यात्व, २५. आशातना मिथ्यात्व | ऐसे पच्चीस प्रकार के मिथ्यात्व में से किसी मिथ्यात्व का सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । विवेचन - मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्वार्थ में श्रद्धा नहीं होना या विपरीत श्रद्धा होना, न्यूनाधिक श्रद्धना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के २५ भेदों का विवेचन इस प्रकार है - १. जीव को अजीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जीव तत्त्व न मानना खा जड़ से उत्पन्न मानना, पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि सम्मूर्च्छिम आदि को जीव नहीं मानना, अंडों एवं जलचर जीवों को खाद्य पदार्थ मानकर उनमें जीव नहीं मानना मिथ्यात्व है । २५२ २. अजीव को जीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जिसमें जीव नहीं है उसमें जीव मानना । ईश्वर ने संसार की रचना की है ऐसा मानना । मूर्ति और चित्रादि को भगवान् मानना, सम्मान देना, हलन चलन करते पुद्गल स्कंधों को जीवाणु मानना । दही थूक आदि अजीव को जीव मानने रूप मिथ्यात्व है । ....... ३. धर्म को अधर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्व - धर्म को अधर्म समझने का अर्थ है परम मान्य सर्वज्ञ कथित सूत्रों को मिथ्या समझना, उनको कल्याणकारी नहीं मानना, धर्म के उपकरणों (वस्त्र, पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि) को परिग्रह मानकर अधर्म मानना, वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिये मुख पर मुखवस्त्रिका बांधने को अधर्म मानना आदि धर्म को अधर्म मानना अभयदान आदि दान देने रूप, धर्म को अधर्म मानना नामक मिथ्यात्व है। ४. अधर्म को धर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्व - अधर्म को धर्म समझने का अर्थ है मिथ्या शास्त्रों को सम्यक्शास्त्र मानना, राग एवं विषय-वासना वर्द्धक ऐसे मिथ्या श्रुतों को भगवान् की वाणी समझना । वीतराग वाणी के विपरीत द्रव्य पूजन की प्रवृत्ति को धर्म प्रवृत्ति समझना आदि अधर्म को धर्म समझने रूप मिथ्यात्व है। Jain Education International ५. साधु को असाधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जिनकी श्रद्धा प्ररूपणा शुद्ध है, जो महाव्रत आदि श्रमण धर्म के पालक हैं ऐसे सुसाधु को असाधु समझना मिथ्यात्व है । ६. असाधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व - जो पांच महाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति आदि से रहित हैं जिनकी श्रद्धा प्ररूपणा खोटी है जिनके आचरण सुसाधु जैसे नहीं हैं। उन्हें लौकिक विशेषता के कारण या साधु वेश देख कर सुसाधु समझना मिथ्यात्व है । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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