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________________ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट द्वितीय ४ ब्रह्मचर्य व्रत चौथा अणुव्रत - थूलाओ मेहुणाओ वेरमणं - सदारसंतोसिए (स्त्रियों के लिए " सभत्तार संतोसिए") अवसेसं मेहुणविहिं पच्चक्खामि जावज्जीव़ाए, देव - देवी सम्बन्धी दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा तथा मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धी एगविहं एगविहेणं न करेमि कायसा एवं चौथा व्रत स्थूल मैथुन विरमण के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोऊं - इत्तरियपरिग्गहियागमणे अपरिग्गहियागमणे, अनंगक्रीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छामि दुक्कडं । २२४ *********************** कठिन शब्दार्थ- मेहुणाओ मैथुन से, सदार सन्तोसिए अपनी पत्नी में संतुष्ट होकर, अवसेसं अन्य से, मेहुणविहिं - मैथुन सेवन का, एगविहं एगविहेणं - एक करण एक योग से, इत्तरियपरिग्गहियागमणे इत्वर परिगृहीता से गमन किया हो, अपरिग्गहिया गमणे - अपरिगृहीता से गमन किया हो, अनंगकीडा - अनंग क्रीड़ा की हो, पर- विवाह करणे - पराये का विवाह नाता कराया हो, कामभोगतिव्वाभिला काम भोग की तीव्र अभिलाषा की हो। - - - Jain Education International ************ भावार्थ - मैं यावज्जीवन अपनी विवाहित स्त्री में ही संतोष रख कर शेष सब प्रकार के मैथुन सेवन का त्याग करता हूँ अर्थात् देव देवी संबंधी मैथुन का सेवन मन, वचन, काया से न करूँगा और न कराऊँगा तथा मनुष्य और तिर्यंच संबंधी मैथुन सेवन काया से न करूँगा । यदि मैंने इत्वरिक - परिगृहीता अथवा अपरिगृहीता से गमन करने के लिए आलाप संलापादि किया हो, प्रकृति के विरुद्ध अंगों से काम क्रीड़ा करने की चेष्टा की हो, दूसरे के विवाह कराने का उद्यम किया हो, कामभोग की तीव्र अभिलाषा की हो तो मैं इन दुष्कृत्यों की आलोचना करता हूँ कि मेरे सब पाप निष्फल हों । - जिसके कुशील का यावज्जीवन का त्याग है उन्हें "सदारसंतोसिए अवसेसं" के स्थान पर "सर्व्व" शब्द बोलना चाहिए । स्त्रियों को "इत्तरियपरिग्गहियागमणे ' " अपरिग्गहियागमणे" के स्थान पर " इत्तरियपरिग्गहियगमणे" "अपरिग्गहिय गमणे" शब्द बोलने चाहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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