SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ . आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम दो भेद कर दिये हैं - सांव्यवहारिक और पारमार्थिक। पारमार्थिक के दो भेद हैं - विकल और सकल। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं और केवलज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय भी होता है। यह इन्द्रियजन्यज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके दो भेद हैं - इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य। मन से होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है और श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है। निष्कर्ष यह हुआ कि - निश्चय में तो अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष है। व्यवहार में मन से तथा इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान भी प्रत्यक्ष कहलाता है। - २. अनुमान - हेतु को देख कर व्याप्ति का स्मरण करने के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं। जैसे दूर से किसी जगह पर उठते हुए धूएं को देख कर यह ज्ञान करना कि यहाँ पर अग्नि होनी चाहिए क्योंकि जहाँ-जहाँ धूआं होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है। जैसा कि - रसोई घर में देखा था कि वहाँ धूआँ था तो अग्नि भी थी। जलाशय में धुआं नहीं होने से अग्नि भी नहीं होती है। ३. उपमान - जिसके द्वारा सदृशता से (समानता से) उपमेय (उपमा देने योग्य) पदार्थों का ज्ञान होता है उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसे गवय (रोझ - एक जंगली जानवर नील गाय) गाय के समान होता है। ४. आगम - आगम शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है - "गुरुपारम्पर्येणा गच्छति इति आगमः।" अर्थ - जो ज्ञान गुरु परम्परा से प्राप्त होता रहता है उसे आगम कहते हैं। आगम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - "आ-समन्ताद् गम्यन्ते - ज्ञायन्ते जीवादयाः पदार्था अनेनेति आगमः। सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः।" गति (चलना) अर्थ में जितनी धातुएं आती हैं, उन सबका ज्ञान अर्थ भी हो जाता है। इसलिए आगम शब्द का यह अर्थ हुआ कि जिससे जीवादि पदार्थ का ज्ञान प्राप्त हो उसे आगम कहते हैं। न्याय ग्रन्थ में कहा है कि - जीवादि पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा जाने और जैसा जानता है वैसा ही कथन (प्ररूपणा) करता हैं उसे आप्त कहते हैं। केवलज्ञानी को परमोत्कृष्ट आप्त कहते हैं। उनके वचनों से प्रकट करने वाले वचन को आगम कहते हैं। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy