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________________ १९६ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम विशेष धर्मों की तरफ उदासीनता रख कर सिर्फ सत्ता रूप सामान्य को ही ग्रहण करने वाला नय 'संग्रह नय' कहलाता है। संग्रह नय के द्वारा जाने हुए सामान्य रूप पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करने वाला नय 'व्यवहार नय' कहलाता है। इसमें सामान्य गौण और विशेष मुख्य हो जाता है। क्योंकि केवल सामान्य से लोक व्यवहार चल नहीं सकता। अतः व्यवहार चलाने के लिए विशेषों की आवश्यकता होती है। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं - ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नय। । पदार्थ की वर्तमान क्षण में रहने वाली पर्याय को ही प्रधान रूप से विषय करने वाला अभिप्राय ऋजुसूत्र नय कहलाता है। जैसे इस समय सुख रूप पर्याय है। . . काल, कारक, लिङ्ग और वचन के भेद से पदार्थ में भेद मानने वाला नय शब्द नय कहलाता है। जैसे सुमेरु था, सुमेरु है और सुमेरु रहेगा। यह काल का भेद है। इसी तरह कारक, लिङ्ग और वचन का भेद भी समझ लेना चाहिए। __ पर्यायवाचक शब्दों में निरुक्ति (व्युत्पत्ति) के भेद से अर्थ का भेद मानने वाला समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे - ऐश्वर्य भोगने वाला इन्द्र, सामर्थ्यवाला शक्र और शत्रुओं के नगर का विनाश करने वाला पुरन्दर कहलाता है। शब्द की प्रवृत्ति की निमित्त रूप क्रिया से युक्त शब्द का वाच्य मानने वाला नय एवंभूत नय कहलाता है। जैसे - जिस समय इन्दन (ऐश्वर्य भोग) रूप क्रिया के होने पर ही इन्द्र कहा जा सकता है। शकन (सामर्थ्य) रूप क्रिया होने पर ही शक्र कहा जा सकता है और पुरदारण (शत्रु नगर का विनाश) रूप क्रिया के होने पर ही पुरन्दर कहा जा सकता है। .. नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र प्रधान रूप से (पदार्थ) का प्ररूपण करते हैं। इसलिए इन्हें अर्थ नय कहा जाता है। शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन नय किस शब्द का वाच्य क्या है, यह निरूपण करते हैं अर्थात् शब्द को प्रधानता देते हैं इसलिए इन तीन को शब्द नय कहते हैं। . नयों का यह संक्षिप्त स्वरूप बतलाया मया है। विशेष जानने की इच्छावालों को प्रमाणनयतत्त्वालोक, जैन सिद्धान्त बोल संग्रह का दूसरा भाग एवं नय प्रमाण का थोकड़ा देखना चाहिए। निक्षेप चार - पदार्थों के जितने निक्षेप हो सके उतने निक्षेप कर देने चाहिए। यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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