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________________ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम .......................... पैंतीस सत्यवचनातिशय- तीर्थंकर देव की वाणी सत्य वचन के अतिशयों से संपन्न होती है। सत्य वचन के पैंतीस अतिशय । सूत्रों में संख्या मात्र का उल्लेख मिलता है। टीका में उन अतिशयों के नाम तथा उनकी व्याख्या है। यहाँ टीका के अनुसार ये अतिशय लिखे जाते हैं १८८ 00000 - शब्द सम्बन्धी अतिशय १. संस्कारवत्व - संस्कृत आदि गुणों से युक्त होना अर्थात् वाणी का भाव और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होना । २. उदात्तत्व - उदात्त स्वरें अर्थात् स्वर का ऊँचा होना । ३. उपचारोपेतत्व - ग्राम्य दोषों से रहित होना । ४. गंभीर शब्दता - मेघ की तरह आवाज में गंभीरता होना । - ५. अनुनादित्व - आवाज का प्रतिध्वनि सहित होना । ६. दक्षिणत्व - भाषा में सरलता होना । ७. उपनीतरागत्व - माल कोशिक आदि ग्राम राग से युक्त होना अथवा स्वर में ऐसी विशेषता होना कि श्रोताओं में व्याख्येय विषय के प्रति बहुमान के भाव उत्पन्न हो । अर्थ सम्बन्धी अतिशय ८. महार्थत्व अभिधेय अर्थ में प्रधानता एवं परिपुष्टता का होना। थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना। ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व - वचनों में पूर्वापर विरोध न होना । १०. शिष्टत्व - अभिमत सिद्धान्त का कथन करना अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित हो ऐसा अर्थ कहना। ११. असन्दिग्धत्व - अभिमत वस्तु का स्पष्टता पूर्वक कथन करना जिससे कि श्रोता के दिल में संदेह न रहे । Jain Education International १२. अपहृतान्योत्तरत्व - वचन का दूषण रहित होना और इसलिए शंका समाधान का मौका न आने देना । १३. हृदयग्राहित्व - वाच्य अर्थ को इस ढंग से कहना कि श्रोता का मन आकृष्ट हो एवं वह कठिन विषय भी सहज ही समझ जाय। १४. देशकाल व्यतीतत्व देश काल के अनुरूप अर्थ कहना। १५. तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तु का जो स्वरूप हो उसी के अनुसार उसका व्याख्यान करना । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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