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________________ ' श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच पदों की वंदना १८५ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि। आप मांगलिक हो, उत्तम हो, हे स्वामिन् ! हे नाथ! आपका इस भव, परभव, भवभव में सदा काल शरणा हो। विवेचन - अर्हन्त भगवान् के १२ गुण - इन बारह गुणों में से अनन्त चतुष्ट्य चार घाति कर्मों के क्षय से प्राप्त होते हैं और शेष आठ देवकृत होते हैं जिन्हें अष्ट महाप्रातिहार्य कहते हैं। अशोक वृक्षः सुरपुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनिश्चारमासनं च। भामण्डलंदुन्दुभिरातपत्र, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम्॥ १. अनन्तज्ञान - केवलज्ञान - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से। २. अनन्तदर्शन - केवलदर्शन - दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से ३. अनन्त चारित्र - क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात चारित्र। यह मोहनीय कर्म के क्षय होने से प्राप्त होता है। ४. अनंतबलवीर्य - अनंत आत्म सामर्थ्य - यह अन्तराय कर्म के क्षय से प्राप्त होता है। - ५. दिव्यध्वनि - तीर्थंकर भगवान् की वाणी एक योजन तक सुनाई देती है और सभी प्राणियों के लिए उनकी भाषा में परिणमती है। . ६. भामण्डल - सूर्य से भी अधिक-प्रकाश के समान चारों और प्रकाश का घेराव। ७. स्फटिक सिंहासन - जिस पर तीर्थंकर (समवसरण में) विराजते हैं। ८. अशोक वृक्ष - जो भगवान् से १२ गुणा ऊँचा छायादार होता है। ९. देवदुन्दुभि - जिसे देवता आकाश में बजाते है। - १०. कुसुमवृष्टि - देवकृत अचित्त पुष्पों की वर्षा होती है। . ११. छत्र - भगवान् के ऊपर एक के ऊपर एक ऐसे तीन छत्र होते हैं जो भगवान् का तीन लोक का नाथ होना सूचित करते हैं। १२. दो चामर - जिसे देव दोनों और से बींजते हैं। अठारह दोष - पंचव अन्तराया, मिच्छत्तमण्णाणमविरइ कामो। हास छग राग दोसा, णिद्दा अट्ठारस इमे दोसा॥ १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय ५. वीर्यान्तराय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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