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________________ `श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं का विस्तार १६९ Jain Education International उत्पन्न परीषहों को अपने शरीर पर झेलता हुआ, स्वयं अकेला (रागादि रहित ) होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार सदैव शय्या समिति के योग से ( शय्या परिकर्म वर्जित करने से ) अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गतिदायक कृत्यों के करण करावण रूप पाप कर्मों से निवृत्त रहती है। वह प्रशस्तात्मा दत्तानुज्ञात अवग्रह ग्रहण करने की रुचि वाला होता है । ४. अनुज्ञात भक्तादि भावना साधु का कर्त्तव्य है कि वह गुरु आदि रत्नाधिकों की आज्ञा प्राप्त करके ही अशन पानादि का उपभोग करे। साथ के सभी साधुओं के लिए जो आहारादि सम्मिलित रूप से प्राप्त हुआ है, उसे सभी के साथ समिति एवं शान्ति के साथ खाना चाहिए। खाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जिससे अदत्तादान का पाप नहीं लगे। उस सम्मिलित आहार में से शाकादि स्वयं अधिक न खावे । अपने भाग के आहार से न तो अधिक खावे और न शीघ्रता पूर्वक खावे । असावधानी न रखते हुए सोच समझ कर उचित रीति से खावे । सम्मिलित रूप से प्राप्त आहार का संविभाग इस प्रकार करे कि जिससे तीसरे महाव्रत में किसी प्रकार का दोष नहीं लगे। यह अदत्तादान विरमण रूप महाव्रत बड़ा सूक्ष्म है । साधारण रूप से आहार और पात्र का लाभ होने पर समितिपूर्वक आचरण करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गतिदायक कुकृत्यों के करने कराने रूप पाप कर्म से दूर रहती है । वह पवित्रात्मा दत्तानुज्ञात आहारादि ग्रहण करने की रुचि वाली होती है । ५. साधर्मिक विनय साधर्मिक साधुओं का विनय करे। ज्ञानी, तपस्वी एवं ग्लान साधु का विनय एवं उपकार करने में तत्पर रहे। सूत्र की वाचना तथा परावर्तना करते समय गुरु का वंदन रूप विनय करे। आहारादि दान प्राप्त करने और प्राप्त दान को साधुओं को देने तथा सूत्रार्थ की पुनः पृच्छा करते समय गुरु महाराज की आज्ञा लेने एवं वंदना करने रूप विनय करे। उपाश्रय से बाहर जाते और प्रवेश करते समय आवश्यकी तथा नैषधिकी उच्चारण रूप विनय करे । इसी प्रकार अन्य अनेक सैंकड़ों कारणों (अवसरों) पर विनय करता रहे। मात्र अनशनादि ही तप नहीं है किन्तु विनय भी तप है। केवल संयम ही धर्म नहीं है किन्तु तप भी धर्म है। इसलिए गुरु साधु और तपस्वियों का विनय करता रहे। इस प्रकार सदैव विनय करते रहने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गति के कारण ऐसे पाप कृत्यों के करने, कराने रूप पाप कर्म से रहित होती है। इससे दत्त अनुज्ञात पदार्थ को ग्रहण करने की रुचि होती है। - ****** For Personal & Private Use Only ********** www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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