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________________ १४६ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ते आलोउं- संका, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा,परपासंडसंथवो, इस प्रकार श्री सम्यक्त्व रत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊ - १ वीतराग के वचन में शंका की हो २ परदर्शन की आकांक्षा की हो ३ धर्म के फल में संदेह किया हो या त्यागवृत्ति के कारण शरीर वस्त्रादि मलिन देखकर सन्त सतियों से घृणा की हो ४ परपाषंडी की प्रशंसा की हो ५ परपाषंडी का परिचय किया हो एवं मेरे सम्यक्त्व रूप रत्न पर मिथ्यात्व रूपी रज मैल लगा हो, इस प्रकार दिवस सम्बन्धी अतिचार दोष लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। कठिन शब्दार्थ - अरहंतो - अहंत (अरहन्त) भगवान्, मह - मेरे, देवो - देव हैं, 'जावजीवाए - जीवन पर्यन्त, सुसाहुणो - सुसाधु, गुरुणो - गुरु हैं, जिण पण्णत्तं - जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित, तत्तं - तत्त्व (धर्म) है, इअ - यह, सम्मत्तं - सम्यक्त्व, मए - मैने, गहियं - ग्रहण किया है, परमत्थसंथवो वा - परमार्थ-नव तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि - परमार्थ के जानने वालों की सेवा करना, वावण्ण कुदंसणवजणा - सम्यक्त्व से भ्रष्ट और अन्यमतियों की प्रशंसा नहीं करना, सम्मत्त - सम्यक्त्व के, सद्दहणा - श्रद्धान हैं, इअ - इस प्रकार, सम्मत्तस्स - सम्यक्त्व के, पंच - पांच, अइयारा - अतिचार, पेयाला - प्रधान, जाणियव्वा - जानने योग्य हैं, न समायरियव्वा - आचरण करने योग्य नहीं हैं, तंजहा - वे इस प्रकार हैं, ते - उनकी आलोचना करता हूँ, संका - वीतराग के वचन में शंका की हो, कंखा - पर दर्शन की आकांक्षा की हो, वितिगिच्छा - धर्म के फल में संदेह किया हो या साधु-साध्वी के मलिन वस्त्र देखकर घृणा की हो परपासंड-पसंसा - पर-पाखण्डी की प्रशंसा की हो, परपासंडसंथवो- पर-पाखण्डी का परिचय किया हो। भावार्थ - अहँत (अरहंत) भगवान् मेरे देव हैं। जीवन पर्यंत सच्चे साधु गुरु हैं। जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित तत्त्व (धर्म) है। इस प्रकार मैंने सम्यक्त्व ग्रहण की है। १. परमार्थ - नव तत्त्वों का ज्ञान करना २. परमार्थ के जानने वालों की सेवा करना ३. जिसने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है उसकी संगति नहीं करना ४. अन्यमतियों की संगति से दूर रहना - ये चार सम्यक्त्व के श्रद्धान हैं। इस प्रकार श्री समकित रत्न पदार्थ के विषय में पाँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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