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________________ श्रमण आवश्यक सूत्र - प्रणिपात सूत्र (णमोत्थुणं का पाठ) १४३ सहलात हा तित्थ्यराणं - साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका तीर्थ रूप है जो इस - तीर्थ की स्थापना करते हैं वे 'तीर्थंकर' कहलाते हैं। तीर्थ का अर्थ पुल भी है। साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की धर्मसाधना संसार सागर से पार होने के लिये पुल है। अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी भी पुल पर चढ़ कर संसार सागर को पार कर सकते हैं। जो ऐसे पुल को तैयार करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। पुरिससीहाणं (पुरुषसिंह) - १. सिंह के समान पराक्रमी और निर्भय। २. जिस प्रकार सिंह निमित्त को न पकड़ कर उपादान को पकड़ता है। इसी प्रकार जो भगवान् को परीषह उपसर्ग देता है, भगवान् उस व्यक्ति पर कुपित नहीं होते क्योंकि वह तो निमित्त मात्र है। उपादान तो आत्मा के उपार्जन किये हुए कर्म हैं। इसलिये वे अपने किये हुए कर्म को क्षय करने का पुरुषार्थ करते हैं। ____परिसवरपुंडरीयाणं (पुरुषवर पुंडरीक) - मानव सरोवर में सर्वश्रेष्ठ कमल। आध्यात्मिक जीवन की अनंत सुगंध फैलाने वाले, कमल के समान अलिप्त। - पुरिसवरगंधहत्थीणं (पुरुषवर गंध-हस्ती) - सिंह की उपमा वीरता का सूचक है, गन्ध की नहीं और पुण्डरीक की उपमा गन्ध की सूचक है वीरता की नहीं। परन्तु गन्धहस्ती की उपमा सुगन्ध और वीरता दोनों की सूचना देती है। गन्धहस्ती के गण्डस्थल (मस्तक) से एक प्रकार का मद झरता रहता है। उसकी गंध से सामने वाले दूसरे हाथी मद रहित हो जाते हैं अर्थात् वे प्रभावहीन हो जाते हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् के सामने अन्य मतावलम्बी परवादी मद रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं तथा गंधहस्ती में ऐसी वीरता होती है कि, दूसरे हाथी उसे जीत नहीं सकते हैं। इसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् में ऐसी अनन्त शक्ति होती है कि कोई भी परवादी उन्हें जीत नहीं सकता है। लोगपइवाणं (लोक प्रदीप) - साधारण पुरुषों के लिये दीपक के समान प्रकाश करने वाले। लोगपज्जोयगराणं (लोक प्रद्योत) - गणधरादि विशिष्ट ज्ञानी पुरुषों के लिये सूर्य के समान प्रकाश करने वाले। विअछउमाणं - व्यावृत्त छद्म। छद्म के दो अर्थ हैं - आवरण और छल। "छादयतीति छद्म" ज्ञानावरणीयादि अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि चार घातीकर्म आत्मा की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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