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________________ आरम्भिक व प्रकाशकीय 'वररुचि- प्राकृतप्रकाश' (भाग - 2) प्राकृत अध्ययनार्थियों के हाथों में समर्पित कर हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्राकृत भाषा भारत के साहित्य - संवर्धन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। प्राकृत का सम्बन्ध भारतीय आर्यभाषा के सभी कालों से रहा है, इसके अध्ययन के बिना आर्यभाषाओं की चर्चा पूर्ण नहीं हो सकती । प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश भाषा के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी की स्रोत बनी। महाकवि वाक्पतिराज ने प्राकृत को ही सब भाषाओं की उद्भवस्थली माना है, इसी से सब भाषाएँ निकलती हैं। जिस प्रकार जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही बाहर निकलता है। इस प्रकार प्राकृत ही सब भाषाओं की मूल आधार है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए उसे अपने मन के भावों या विचारों को समझना होता है। भाषा ही वह सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने भावों या विचारों को दूसरों तक पहुँचाता है या दूसरों के भावों या विचारों को ग्रहण करता है। भाषा जहाँ सामाजिक व्यवहार के लिए आवश्यक है वहाँ ही वह साहित्य - निर्माण के लिए अनिवार्य है। इस प्रकार जगत के व्यवहार के लिए भाषा अप्रतिम माध्यम है। . भाषा निरन्तर परिवर्तनशील है, उसमें अपने आप परिवर्तन होते रहते हैं। भाषा में होते रहनेवाले इन परिवर्तनों के बाद भी उसका जो साहित्यिक रूप बनता है उसको सही रूप में लिखने, पढ़ने और बोलने - सीखने के लिए उसके (v) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004170
Book TitleVarruchi Prakrit Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Seema Dhingara
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2010
Total Pages62
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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