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________________ 35. यदि तू घोर संसार-समुद्र के पार जाने की इच्छा करता है, तो हे सदाचारी ! शीघ्रता करते हुए तप-संयमरूपी उपकरण को ग्रहरण कर । 36. देवताओं सहित सभी मनुष्यों का जो कुछ ( भी ) कायिक और मानसिक दुःख है, ( वह) इच्छात्रों में प्रत्यासक्ति से ही उत्पन्न (होता है) । ( किन्तु ) वीतराग उसका नाश कर देता है । 37. जिस कारण से अनासक्ति उत्पन्न होती है, वह पूर्ण सावधानी से पालन किया जाना चाहिए। श्रेष्ठ अनासक्त (व्यक्ति) कर्म - बन्धन से छुटकारा पा जाता है। किन्तु आसक्त (व्यक्ति) ( कर्म - बन्धन का ) अन्त करने वाला नहीं होता है । 38. निश्चय दृष्टि से यह शरीर अन्य ( है ) (तथा) (यह ) जीव भी अन्य ( है ) । (इसलिए) शरीर से ममता को, जो दुःखदायक और अत्यन्त क्लेशजनक ( है ), दूर हटाओ । 39. वस्तु - जगत् से विरक्त मनुष्य दुःख-रहित (होता है); संसार के मध्य में विद्यमान भी ( वह ) दुःख - समूह की इस अविछिन्न धारा से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कि कमलिनी का पत्ता जल से (मलिन नहीं किया जाता है ) । 40. अहिंसा, संयम और तप धर्म ( है ) । ( इससे ही ) सर्वोच्च कल्याण ( होता है)। जिसका मन सदा धर्म में ( लीन है), उस (मनुष्य) को देव भी नमस्कार करते हैं । चयनिका ] Jain Education International For Personal & Private Use Only [ 15 www.jainelibrary.org
SR No.004166
Book TitleSamansuttam Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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