SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनन्यायपञ्चाशती 65 यह है-'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्'। जैसे सोने से जब मुकुट बनाया जाता है तब सोना का रूप मुकुट के रूप में परिवर्तित हो जाता है और सोने का रूप विनष्ट हो जाता है। इन दोनों अवस्थाओं में सोना उसी रूप में अवस्थित रहता है। यही वस्तुस्वरूप सत् का लक्षण है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु में दो अंशों को स्वीकार करता है-एक है पर्यायांश और दूसरा है द्रव्यांश। वहां उत्पाद और व्यय तो पर्यायांश में ही होते हैं और द्रव्यांश वहां ध्रौव्यरूप में रहता है। इसलिए वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होती है, इस प्रकार वस्तु के लक्षण में द्रव्य और पर्याय का अस्तित्व स्वीकृत है। वहां पर्यायांश में उत्पत्ति और व्यय की सत्ता रहती है और द्रव्यांश ध्रौव्य है। इस प्रकार उत्पाद व्यय से युक्त जो ध्रौव्य है वही सत् का लक्षण है। इससे ज्ञात होता है कि एक ही समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-ये तीनों तथ्य एक साथ में रहें तब सत् का स्वरूप निश्चित होता है। इसी तथ्य का आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रतिपादन किया है 'प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगिस्थिरैक-मध्यक्षमपीक्षमाणः' अर्थात् वस्तु में उत्पाद और व्यय प्रतिक्षण हो रहे हैं, फिर भी वस्तु स्वरूपतः स्थिर है। इसलिए वह त्रयात्मक है। वस्तु में उत्पाद और व्यय से वस्तु की परिवर्तनशीलता तथा ध्रुवता से उसकी नित्यता व्यक्त होती है। यहां यह कहना उचित नहीं है कि ये परस्पर विरोधी धर्म (उत्पाद, व्यय, ध्रुव) एक साथ कैसे रह सकते हैं? क्योंकि यदि इन विरोधी धर्मों का एक साथ समावेश न हो तो सत् का लक्षण ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसलिए अनुभूत जो सत् का लक्षण है उसकी उपपत्ति के लिए इन तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) का एक साथ रहना स्वीकार्य ही है। जैसे दूध से दही बनाया जा रहा है। तब उसमें दूध का धीरे-धीरे व्यय होता है और दही का उत्पाद होता है। यहां दोनों अवस्थाओं (दूध और दही) में गोरस तो रहता ही है। इस प्रकार यहां सत् का लक्षण बताकर अब दो उदाहरणों से वस्तु की त्रयात्मकता को सिद्ध कर रहे हैं। प्रथम उदाहरण स्वर्गगंगा का दिया गया है। गंगा निरन्तर बहती है। उस प्रवाह में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है ! उसमें जल निरन्तर हा हा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy