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________________ 51 जैनन्यायपञ्चाशती व्याप्ति से विशिष्ट हेतु उपलब्ध होता है। जिस पुरुष ने रसोईघर में धूएं में अग्नि की व्याप्ति का ग्रहण किया वही पुरुष कदाचित् वन में गया। वहां उसने पर्वत पर अविच्छिन्नमूल धूएं को देखा। यह पर्वत धूएं वाला है, यह प्रथम ज्ञान उसको हुआ। उसके बाद वह धूएं में गृहीत व्याप्ति का स्मरण करता है। यह वही धुआं है जो अग्नि की व्याप्ति से विशिष्ट है। उसके बाद अग्नि की अनुमिति होती है। इस प्रकार यह प्रमाण भी पूर्वकारण सापेक्ष है-जैसे पहले पर्वत पर धुएं का दर्शन, उसके पश्चात् धुआं अग्नि का व्याप्य है, यह व्याप्तिस्मरण, उसके बाद अग्नि का व्याप्य वही धुआं है, यह प्रत्यभिज्ञा, उसके बाद पर्वत अग्निमान् है, यह अनुमिति-यही क्रम पूर्व कारणसापेक्षत्व का जानना चाहिए। आगम-अब आगम के विषय में विचार किया जा रहा है। 'आसमन्ताद् गम्यते बोध्यते-ज्ञायते आत्मतत्त्वं येनासौ आगम इति' जिससे आत्मतत्त्व विधिपूर्वक जाना जाए उसे आगम कहते हैं, यह आगमशब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। आगम परोक्ष प्रमाण का दूसरा भेद है। 'आप्तवचनात् जातं श्रुतज्ञानमागमः'-आप्तवचन से होने वाला श्रुतज्ञान आगम है। यह आगम का दूसरा प्रसिद्ध अर्थ है। वचन से होने वाला ज्ञान यदि आगम नहीं है तो आप्तवचन में आगमशब्द का प्रयोग कैसे होगा? यदि ऐसा है तो यहां यह जानना चाहिए कि आप्तवचन में जो आगमशब्द का प्रयोग हुआ है वह तो औपचारिक है। इसका तात्पर्य यह है कि आप्तवचन से होने वाले श्रुतज्ञान में जो आगमत्व है वह उसके कारण आप्तवचन में आरोप करके आप्तवचन को भी आगम कहा जाता है। अर्थात् आप्तवचन कारण है और श्रुतज्ञान उसका कार्य है। उपचार से कार्य के धर्म का कारण में आरोप करके आप्तवचन को भी आगम कहा गया है, यही यहां उपचार है। आगम श्रुतज्ञान है। वह श्रुतज्ञान दो प्रकार का है-द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । दव्यश्रुत वर्णपदवाक्यात्मक वचन होने के कारण पौद्गलिक है। यह द्रव्यश्रुत अर्थज्ञान रूपी भावश्रुत का साधन है। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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