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________________ 16 जैनन्यायपञ्चाशती है। इस ज्ञान में घटत्व विशेषण (प्रकार) है तथा घट विशेष्य है। इस प्रकार का अथवा इस आकार वाला ज्ञान ही यथार्थज्ञान कहा जाता है। ऐसे यथार्थज्ञान का जो करण होता है वही प्रमाण होता है। बहुत वस्तुओं के रहने पर भी प्रमा (यथार्थज्ञान) उत्पन्न नहीं होती, किन्तु जब पदार्थों के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष होता है तब प्रमा उत्पन्न होती है, इसलिए संयोगादि इन्द्रियसन्निकर्ष ही ज्ञान के प्रति कारण होता है। वह सन्निकर्ष प्रमाता आदि से भी अतिशय है, क्योंकि अतिशय उपयोगी होने के कारण इन्द्रिय-सन्निकर्ष ही प्रमाण है। वही प्रत्यक्षज्ञान का हेतु बनता है। वह सन्निकर्ष छः प्रकार का होता है। वह इस प्रकार है-१. संयोग, २. संयुक्तसमवाय, ३. संयुक्तसमवेतसमवाय, ४. समवाय, ५. समवेतसमवाय, ६. विशेषण-विशेष्य भाव। ... • संयोग-चक्षु से घट के प्रत्यक्ष में 'संयोगसन्निकर्ष' होता है। इसमें चक्ष और घट दोनों द्रव्य हैं। दो द्रव्यों का संयोग सन्निकर्ष ही होता है। . . • संयुक्तसमवाय-घट के रूप को देखने के लिए संयुक्तसमवायसन्निकर्ष' होता है। यहां चक्षु और घट का संयोग सन्निकर्ष है। उस घट में समवायसम्बन्ध से रूप रहता है। इस प्रकार चक्षुसंयुक्त घट में रूप के समवेत होने के कारण यहां 'संयुक्तसमवायसन्निकर्ष' होता है। • संयुक्तसमवेतसमवाय-रूप में रहने वाले रूपत्व को देखने में 'संयुक्तसमवेतसमवायसन्निकर्ष' होता है। यहां चक्षुसंयुक्त घट है। उस घट में रूप समवेत है और उस रूप में समवायसम्बन्ध से रूपत्व रहता है। इस प्रकार यहां संयुक्तसमवेतसमवायसन्निकर्ष संघटित होता है। •समवाय-श्रोत्र से शब्द का ग्रहण करने में समवाय-सन्निकर्ष' होता है। श्रोत्र आकाश है और शब्द आकाश का गुण है। यह गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध प्रसिद्ध है। • समवेतसमवाय-शब्द में रहने वाले शब्दत्व के साक्षात्कार में 'समवेतसमवायसन्निकर्ष' होता है। श्रोत्र समवेत शब्द में शब्दत्व समवायसम्बन्ध से रहता है। इस प्रकार यह सन्निकर्ष यहां प्रसिद्ध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004165
Book TitleJain Nyaya Panchashati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishwanath Mishra, Rajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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