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________________ 104. जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा || जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता समो सहावे सो अप्पाणं' हवदि झादा 1. (ज) 1 / 1 सवि [ (खविद) भूकृ - (मोह) - ( कलुस) 1 / 1 ] [ ( विसय) - (विरत्त) प्रवचनसार ( खण्ड - 2) Jain Education International भूक 1 / 1 अनि ] (मणो) 2 / 1 अनि मन को रोककर (णिरंभ + इत्ता) संकृ (समवदि) भूकृ 1 / 1 अनि अवस्थित स्वभाव में (सहाव ) 7/1 (त) 1 / 1 सवि (अप्पाण) 2/1 (हव) व 3 / 1 अक (झादु) 1 / 1 वि जो नष्ट कर दी गई मोहरूपी मलिनता विषयों से विरक्त अन्वय समवद्विदो सो अप्पाणं झादा हवदि । अर्थ- (जिसके द्वारा) मोहरूपी (आत्मविस्मृतिरूपी) मलिनता नष्ट कर दी गई (है), (जो) विषयों से विरक्त (है), (तथा) जो मन को रोककर स्वभाव में अवस्थित (है) वह आत्मा में ध्यान लगानेवाला होता है। खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो जो मणो णिरुंभित्ता सहावे वह आत्मा में होता है ध्यान लगानेवाला कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेंम - प्राकृत - व्याकरणः 3-137) For Personal & Private Use Only (119) www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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