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________________ · 93. गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पुग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु॥ गेण्हदि णेव मुंचदि करेदि . न पोग्गलाणि कम्माणिं जीवो पुग्गलमज्झे * वट्टण्णवि (मूल शब्द) (गेण्ह) व 3/1 सक ग्रहण करता है अव्यय न ही अव्यय न.. (मुच) व 3/1 सक छोड़ता है (कर) व 3/1 सक - रचता है .. अव्यय अव्यय ही (पोग्गल) 2/2 पुद्गल .. (कम्म) 2/2 कर्मों को (जीव) 1/1 जीव [(पुग्गल)-(मज्झ) 7/1] पुद्गल के मध्य में [(वट्टण्ण)+(अवि)] , वट्टण्णो (वट्टण्ण) 1/1 वि रहनेवाला . अवि (अ) = भी [(सव्व) सवि-(काल) 7/2] सब कालों में . सव्वकालेसु अन्वय- जीवो सव्वकालेसु पुग्गलमज्झे वट्टण्णवि पोग्गलाणि कम्माणि णेव गेहदि ण मुंचदि ण हि करेदि। अर्थ- (शुद्ध) जीव सब कालों में पुद्गल के मध्य में (ही) रहनेवाला (है) (तो) भी (वह) पुद्गल कर्मों को न ही ग्रहण करता है, न छोड़ता है, न ही रचता है। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) (108) प्रवचनसार (खण्ड-2) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004159
Book TitlePravachansara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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