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________________ 47. जं तक्कालियमिदरं जादि जुगवं समंतदो सव्वं जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं । । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं 2. (ज) 1 / 1 सवि [(तक्कालियं) + (इदरं)] तक्कालियं ( तक्कालिय ) 2 / 1वि वर्तमानकाल सम्बन्धी इदरं (इदर) 2/1 वि और अन्य को (जाण) व 3 / 1 सक जानता है अव्यय (समंतदो) (सव्वं) द्वितीयार्थक अव्यय (अत्थ) 2 / 1 [(विचित्त) वि- (विसम) Jain Education International 2/1 fa] (त) 1/1 सवि ( णाण) 1 / 1 ( खाइय) 1 / 1 वि (भण भणिय) भूक 1/1 → जो For Personal & Private Use Only एक ही साथ सब ओर से पूर्णरूप से पदार्थ को अनेक प्रकार के और असमान को वह ज्ञान अन्वय- जं णाणं समंतंदो तक्कालियमिदरं विचित्तविसमं अत्थं सव्वं जुगवं जादि तं खाइयं भणियं । अर्थ- जो ज्ञान सब ओर से वर्तमानकाल सम्बन्धी और अन्य ( भूत और भविष्यतकाल संबंधी) अनेक प्रकार के और असमान (मूर्त-अमूर्त आदि) पदार्थ को पूर्णरूप से (और) एक ही साथ जानता है वह (ज्ञान) क्षायिक (कर्मों के क्षय से उत्पन्न) (अतीन्द्रिय) कहा गया ( है ) । प्रवचनसार ( खण्ड - 1 ) क्षायिक कहा गया (59) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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