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________________ 33. जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।। 5 4 ही (ज) 1/1 सवि अव्यय सुदेण (सुद) 3/1 विजाणदि (विजाण) व 3/1 सक अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 जाणगं (जाणग) 2/1 वि सहावेण (सहाव) 3/1 (त) 2/1 सवि . सुयकेवलिमिसिणो [(सुयकेवलिं)+ (इसिणो)] सुयकेवलिं (सुयकेवलि) 2/1 वि इसिणो (इसि) 1/2 भणंति (भण) व 3/2 सक लोयप्पदीवयरा [(लोय)-(प्पदीवयर) 1/2 वि] श्रुतज्ञान के द्वारा जानता है आत्मा को जाननेवाले स्वभाव से उसको श्रुतकेवली देव कहते हैं लोक के प्रकाशक अन्वय- जो सहावेण हि जाणगं अप्पाणं सुदेण विजाणदि लोयप्पदीवयरा इसिणो तं सुयकेवलिं भणंति। अर्थ- जो स्वभाव से ही जाननेवाले (ज्ञायक) आत्मा को श्रुतज्ञान के द्वारा जानता है, लोक के प्रकाशक देव उसको श्रुतकेवली कहते हैं। प्रवचनसार (खण्ड-1) (45) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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