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________________ 26. सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया।। सव्वगदो जिणवसहो सव्वे तग्गया जगदि अट्टा णाणमयादो (सव्वगद) 1/1 वि सर्वव्यापक (सब ज्ञेयों में पहुँचे हुए) (जिणवसह) 1/1 अरिहंत देव (सव्व) 1/2 सवि . सब अव्यय अव्यय __ और (तग्गय) भूकृ 1/2 अनि उनमें स्थित (जगदि) 7/1 अनि जगत में . (अट्ठ) 1/2 पदार्थ . (णाणमय) 5/1 वि ज्ञानमय होने से अव्यय पादपूरक (जिण) 1/1 केवली (विसय) 5/1 . विषय होने से (त) 6/1 उसके (त) 1/2 सवि । (भणिय-भणिया) भूकृ 1/2 कहे गये य जिणो विसयादो तस्स भणिया अन्वय- णाणमयादो जिणो जिणवसहो सव्वगदो य जगदि ते सव्वे वि अट्ठा तस्स विसयादो तग्गया भणिया य। अर्थ- ज्ञानमय होने से केवली अरिहन्त देव सर्वव्यापक अर्थात् (सब ज्ञेयों में पहुँचे हुए) (हैं) और जगत में वे सब ही पदार्थ उनके विषय होने से उनमें स्थित कहे गये (हैं)। (38) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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