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________________ 6. संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।। प्राप्त होता है निर्वाण संपज्जदि (संपज्ज) व 3/1 अक णिव्वाणं (णिव्वाण) 1/1 देवासुरमणुयराय- [(देव)+(असुरमणुयरायविहवेहि विहवेहिं)] [(देव)-(असुर)(मणुयराय) (विहव) 3/2] जीवस्स (जीव) 4/1 चरित्तादो (चरित्त) 5/1 दसणणाणप्पहाणादो [(दसण)-(णाण) (प्पहाण) 5/1 वि] देवताओं, दानवों, मनुष्यों के स्वामियों के वैभव होने पर जीक के लिए चारित्र से दर्शन, ज्ञान प्रधान से अन्वय- देवासुरमणुयरायविहवेहिं जीवस्स दंसणणाणप्पहाणादो चरित्तादो णिव्वाणं संपज्जदि। अर्थ- देवताओं, दानवों, मनुष्यों के स्वामियों के (सराग चारित्ररूपी) वैभव होने पर (भी) जीव के लिए दर्शन, ज्ञान प्रधान चारित्र (वीतराग चारित्र) से (ही) निर्वाण प्राप्त होता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (16) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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