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________________ 3. ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं। वंदामि य वटुंते अरहते माणुसे खेत्ते।। ते उन को उन को सभी को सव्वे समगं साथ साथ समगं पत्तेगमेव (उन) 2/2 सवि (उन) 2/2 सवि (सव्व) 2/2 सवि अव्यय अव्यय [(पत्तेगं)+ (एव)] पत्तेगं (अ) = पृथक-पृथक एव (अ) = भी (पत्तेग) 2/1 वि (वंद) व 1/1 सक · अव्यय ' (वट्ट) व 3/2 सक (अरहंत) 2/2 (माणुस) 7/1 (खेत्ते ) 7/1 पृथक-पृथक भी प्रत्येक को प्रणाम करता हूँ और पत्तगं वंदामि य वट्टते अरहते माणुसे विद्यमान हैं अरिहंतों को मनुष्य क्षेत्र में खेत्ते अन्वय- य ते ते सव्वे अरहंते माणुसे खेत्ते वटुंते समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं वंदामि। अर्थ- और उन-उन सभी अरिहंतो को (जो) मनुष्य क्षेत्र में विद्यमान हैं, साथ-साथ (और) पृथक-पृथक भी प्रत्येक को प्रणाम करता हूँ। प्रवचनसार (खण्ड-1) (13) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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