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________________ - 88. जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। जो जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं (ज) 1/1 सवि [(मोह)-(राग)-(दोस) 2/2] मोह, राग और द्वेष को (णिहण) व 3/1 सक नष्ट करता है । (उवलब्भ) संकृ अनि ... समझ करके [(जोण्ह)+ (उवदेस)] .. जोण्हं (जोण्ह) 2/1 वि दिव्य उवदेसं (उवदेस) 2/1 उपदेश को (त) 1/1 सवि वह [(सव्व)-(दुक्ख)- समस्त दुःखों से . (मोक्ख) 2/1] छुटकारा (पाव) व 3/1 सक पा जाता है अव्यय थोड़े (काल) 3/1 . सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण समय में अन्वय- जो जोण्हं उवदेसं उवलब्भ मोहरागदोसे णिहणदि सो अचिरेण कालेण सव्वदुक्खमोक्खं पावदि। अर्थ- जो (आत्मा) दिव्य उपदेश को समझ करके मोह (आत्मविस्मृति), राग (आसक्ति) और द्वेष (शत्रुता) को नष्ट करता है, वह थोड़े समय में (ही) समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (100) प्रवचनसार (खण्ड-1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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