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________________ 81. जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ।। जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म जहदि दि रागदो सो अप्पाणं लहदि सुद्धं 1. (जीव) 1 / 1 [ ( ववगद) भूक अनि ( मोह) 1 / 1 ] ( उवलद्ध) भूकृ 1 / 1 अनि [( तच्चं) + (अप्पणो )] तच्चं ( तच्च) 2/1 अप्पणो (अप्प) 6 / 1 अव्यय (जह) व 3/1 सक अव्यय वचनसार (खण्ड-1 -1) Jain Education International [ (राग) - (दोस) 2 / 2 ] (त) 1 / 1 सवि . ( अप्पाण) 2/1 (लह) व 3 / 1 सक (सुद्ध) 2/1 वि जीव समाप्त कर दिया गया मोह समझ लिया अन्वय रागदोसे जहदि सुद्धं अप्पाणं लहदि । अर्थ - (जिसके द्वारा) मोह (आत्मविस्मृति भाव) समाप्त कर दिया गया (है) (तथा) (जिसने ) आत्मा के सार (मूल स्वभाव) को अच्छी तरह समझ लिया (है), वह जीव यदि राग-द्वेष (अशुद्धभाव) छोड़ता है (तो) शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया गया है। सार को आत्मा के अच्छी तरह छोड़ता है यदि राग-द्वेष aaगदमोहो अप्पणी तच्वं सम्मं उवलद्धो सो जीवो जदि For Personal & Private Use Only वह आत्मा को प्राप्त करता है शुद्ध (93) www.jainelibrary.org
SR No.004158
Book TitlePravachansara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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