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________________ प्रकार के विवरण मिलते हैं। एक के अनसार वि.सं. से 400 वर्ष पूर्व श्रीमाल नगर में आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने बहुत से हिन्दू परिवारों को जैनधर्म में परिवर्तित किया था, इसके उपरांत एक अन्य आचार्य ने और दूसरे हिन्दू परिवारों को जैनधर्म में परिवर्तित किया। यह क्रम एक लम्बे समय तक चलता रहा और श्रीमाल में जो व्यक्ति जैनधर्म में दीक्षित हुए थे वे श्रीमाली जैन कहलाये। दूसरे विवरण के अनुसार लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिये भगवान विष्णु ने श्रीमाल में 90000 बनियों को सिरजा। एक विवरण के अनुसार ये बनिये लक्ष्मी के गहनों से बनाये गये तथा दूसरे विवरण के अनुसार लक्ष्मी की जंघा से बने।" बाद में श्रीमाली जैनों में 135 गोत्र या भेद हो गये जिनके नाम 'महाजन वंश मुक्तावली12 में दिये गये हैं। अन्य जातियों के समान इसमें भी दो भेद हैं(1) बीसा श्रीमाल-वृद्ध सज्जनिया (2) दशा श्रीमाल-लघु सज्जनिया और अनेक गोत्र हैं।13 श्री दोषी इनके भेद के विषय में लिखते हैं कि श्रीमाली बीसा, दसा और लाइवा में विभक्त हैं। दसा और बीसा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीन कथाएं कही जाती हैं। एक कथा के अनुसार जो श्रीमाली घूम-फिर कर विदिशा में जा बसे वे बीसा कहलाये। जो निर्देश के अनुसार बसे वे दसा कहलाये। दूसरी कथा के अनुसार जो श्रीमाली लक्ष्मी के दायी ओर से फैले वे बीसा तथा बायी ओर से आये वे दसा कहलाये। तीसरी कथा के अनुसार बीसा या बीस संख्या के अनुसार दसा या दस से दुगुनी संख्या में आये इस कारण बीसा कहलाये। निश्चय इन वक्तव्यों का कल्पना ही आधार है। लाड़वा श्रीमाली प्राचीन लाट देश (दक्षिण गुजरात) में रहने के कारण लाड़वा श्रीमाली कहलाये। बीसा श्रीमाली केवल जैनों तथा दसा श्रीमाली जैनों तथा वैष्णवों दोनों में पाये जाते हैं। बीसा श्रीमाली के सात भेद हैं। यथा- (1) अहमदाबादी (2) उठारिया (3) पाल्हणपुरिया (4) पाटनी (5) सोरठिया (6) तलबदा और (7) धराडिया। दसा श्रीमाली के तीन भेद हैं यथा- (1) होरसठा (2) चणमहुआ और (3) इदड़िया। लाड़वा श्रीमाली में कोई भेद नहीं है। इन भेदों व उपभेदों में खानपान तो प्रचलित है किन्तु एक-दूसरे में विवाह सम्बन्ध नहीं होते हैं। कुछ प्रकरणों में दसा श्रीमाली जैन, दसा श्रीमाली वैष्णवों या दसा ओसवाल, दसा परवाड़ जैनों में वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित है।15 इसके अतिरिक्त श्रीमालियों में भी अनेक गोत्र पाये जाते हैं जो किसी व्यवसाय, व्यक्ति के नाम, स्थान या कुल के नाम या अन्य किसी आधार पर बने हैं। मालवा में श्रीमाली जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस वंश के रत्न 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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