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________________ 56 मूर्तिपूजा आदि अपने मत के विरोधी उल्लेख थे उनको अमान्य ठहराया । " श्री एस. बी. देव इस मत पर मुस्लिम प्रभाव देखते हैं। 57 आगे चलकर इसी मत में से 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ढूंढक मत जिसे स्थानकवासी बाइस टोला (साधु मार्गी) भी कहते हैं, प्रादुर्भाव हुआ और उस मत में से संवत् 1818 के लगभग भीखणजी ने तेरापंथी मत निकाला। " समग्ररूप से हम यह कह सकते हैं कि लौंकाशाह ने अपने नाम से अपने सिद्धान्तों के आधार से एक अलग ही मत को जन्म दिया जो मूर्ति पूजा का विरोधी था । (3) स्थानकवासी : जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है लोंकामत के कुछ सदस्यों ने स्थानकवासी सम्प्रदाय को जन्म दिया। 59 लोंका सम्प्रदाय के अनेक व्यक्ति स्थानकवासी सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गये। इसके विरोधियों ने इनको ढूंडिया या ढूंढक मत का नाम दिया। श्रीमती स्टीवेंसन इस सम्प्रदाय के जन्म का कारण मुस्लिम प्रभाव बताती हैं। चूंकि यह सम्प्रदाय लोंका सम्प्रदाय से अलग हो गया। यह स्वाभाविक था कि यह भी मूर्तिपूजा विरोधी हो जाय। स्थानकवासी सम्प्रदाय को प्रारम्भ करने का श्रेय सूरत के वीरजी को दिया जाता है।" मालवा में सर्वत्र इस सम्प्रदाय के अनुयायी पाये जाते हैं। 60 (4) तेरापंथी : तेरापंथी सम्प्रदाय के संस्थापक भीखणजी थे। अपने समालोचनात्मक अध्ययन के आधार पर भीखणजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जैनसाधु जैन धर्म के सिद्धांतों और शास्त्रीय आचार संहिता के अनुसार अपना जीवन व्यतीत नहीं कर रहे हैं। तब उन्होंने विक्रम संवत् 1817 में तेरापंथी सम्प्रदाय की स्थापना की। इस सम्प्रदाय को भीखणजी ने सही नाम इस प्रकार दिया कि जैनधर्म में पांचमहाव्रत, पंचसमिति तथा तीन गुप्तियां होती है जिनका योग तेरह होता है। इस कारण इसके पालनकर्ता तेरापंथी हुए । 62 तेरापंथी मूर्तिपूजा नहीं करते। प्राप्त नहीं होता । ३ श्वेताम्बर मत के पाये जाते हैं। इनका कथन है कि मूर्ति पूजने में मोक्ष इस सम्प्रदाय के अनुयायी मालवा में भी श्वेताम्बर मतावलम्बियों की भांति ही दिगम्बर मतावलम्बियों में भी मूर्तिपूजक और जो मूर्ति पूजा विरोधी दो सम्प्रदाय पाये जाते हैं। समयांतर से ये उपभेद भी पुनः अनेक भेदों में विभक्त हो गये। दिगम्बर मत के प्रमुख सम्प्रदायों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। (1) तेरापंथी : श्वेताम्बर मत में मूर्तिपूजा का निषेध किया गया है। किन्तु दिगम्बर तेरापंथी मूर्ति पूजक हैं तथा ये अक्षत, चन्दन आदि से मूर्ति की पूजा करते हैं। इनके मंदिरों में क्षेत्रपाल भैरव आदि की प्रतिमा नहीं होती ये आरती भी Jain Education International For Personal & Private Use Only 37 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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