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________________ सिद्धसेन दिवाकर ने इसके अतिरिक्त और भी ग्रन्थों की रचना की जिनका विशिष्ट स्थान है। इस युग में जैनधर्म भारत के अन्य भागों में भी अपना प्रभाव जमा रहा था यद्यपि अपने मूल स्थान मगध में इसके प्रभाव में कमी आ रही थी।28 राजपतकालीन मालवा में जैनधर्म : यदि गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल है, तो राजपूत काल मालवा में जैनधर्म के विकास तथा समृद्धि के दृष्टिकोण से स्वर्णकाल रहा है। इस युग में कई जैन मंदिरों का निर्माण हुआ। इसके प्रारम्भिक काल में बदनावर में जैन मंदिर विद्यमान थे। इसका विवरण डॉ.हीरालाल जैन इस प्रकार देते हैं- जैन हरिवंश पुराण की प्रशस्ति में इसके कर्ता जिनसेनाचार्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि शक संवत् 705 (ई.सन् 783) में उन्होंने वर्धमानपुर के पाालय (पार्श्वनाथ के मंदिर) की अन्नराजवसति में बैठकर हरिवंशपुराण की रचना की और उसका जो भाग शेष रहा उसे वहीं के शांतिनाथ मंदिर में बैठकर पूरा किया। उस समय उत्तर में 'इन्द्रायुद्ध', दक्षिण में कृष्ण के पुत्र श्री वल्लभ व पश्चिम में वत्सराज तथा सौर मंडल में वीर वराह नामक राजाओं का राज था। यह वर्धमानपुर सौराष्ट्र का वर्तमान बढ़वान माना जाता है। किन्तु मैंने अपने लेख में सिद्ध किया है कि हरिवंशपुराण में उल्लिखित वर्धमानपुर मध्यप्रदेश के धार जिले में बदनावर है, जिससे 10 मील की दूरी पर दोस्तरिन्का होना चाहिये, जहां की प्रजा ने जिनसेन के उल्लेखानुसार उस शांतिनाथ मंदिर में विशेष पूजा अर्चना का उत्सव किया था। इस प्रकार वर्धमानपुर में आठवीं शती में पार्श्वनाथ और शांतिनाथ के दो जैन मंदिरों का होना सिद्ध होता है। शांतिनाथ मंदिर 400 वर्ष तक विद्यमान रहा। इसके प्रमाण हमें बदनावर से प्राप्त अच्छुप्तादेवी की मूर्ति पर के लेख से प्राप्त होते हैं, क्योंकि उसमें कहा गया है कि संवत 1229 (ई.सन 1179) की वैशाख कृष्ण पंचमी को वह मूर्ति वर्धमानपुर के शांतिनार्थ चैत्यालय में स्थापित की गई। 29 विदिशा. क्षेत्र में भी जैनधर्म इस युग में उन्नतावस्था में था जिसका प्रमाण है वहां उपलब्ध जैन मंदिर व मूर्तियां। ग्यारसपुर नामक स्थान पर जैन मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। मालवा में जैन मंदिरों के जितने भग्नावशेष मिले हैं, उनमें प्राचीनतम अवशेष यही पर है जो विन्यास एवं स्तम्भों की रचना शैली में खजुराहों के समान हैं। फर्गुसन ने इनका निर्माण काल 10वीं सदी के मध्य निर्धारित किया है। इस काल के और भी अनके अवशेष इस क्षेत्र में मिले हैं। साथ ही यदि इन सब अवशेषों का विधिवत् संकलन एवं अध्ययन किया जाय तो जैन वास्तुकला के एक दीर्घ रिक्त स्थान की पूर्ति हो सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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