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________________ (14) आचार्य अमितगति (द्वितीय) : आचार्य अमितगति द्वितीय माथुरसंघ के आचार्य थे जो माधवसेनसूरि के शिष्य और नेमिषेण के प्रशिष्य थे। ये अमितगति वाक्पतिराज मुंज की सभा के रत्न थे। ये बहुश्रुत विद्वान थे। इनकी रचनाएं विविध विषयों पर उपलब्ध हैं। इनकी रचनाओं में एक पंचसंग्रह वि. सं. 1073 में मसूतिकापुर वर्तमान मसूदविलोदा में जो कि धारा के समीप है, बनाया था । इन सब उल्लेखों से सुनिश्चित है कि अमितगति धारा नगरी और उसके आसपास के स्थानों में रहे थे। उन्होंने प्रायः अपनी सभी रचनाएं धारा में या उसके समीपवर्ती नगर में प्रस्तुत की। बहुत सम्भव है कि आचार्य अमितगति के गुरुजन धारा या उसके समीपवर्ती स्थानों में रहे हों। अमितगति ने सं. 1050 से 1073 तक 23 वर्ष के काल में अनेक ग्रन्थों की रचना वहां की थी। 31 कीथ ने अमितगति के विषय में लिखा है कि अमितगति क्षेमेन्द्र से अर्धशताब्दी पहले हुए थे। उनके सुभाषितरत्न संदोह की रचना 994 में हुई थी. और उनकी धर्मपरीक्षा बीस वर्ष अनन्तर लिखी गई। सुभाषितरत्न संदोह में बत्तीस परिच्छेद (निरूपण) है जिनमें से प्रत्येक में साधारण एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है। अमितगति बहुमुखी प्रतिभा के विद्वान थे। जैनधर्म के अतिरिक्त संस्कृत के क्षेत्र में भी उनका ऊंचा स्थान माना जाता है । वि. सं. 953 में माथुरों के गुरु रामसेन ने काष्ठासंघ की एक शाखा मथुरा में माथुर संघ का निर्माण किया गया था। अमितगति इसी माथुर संघ के अनुयायी थे। अमितगति की गुरु परम्परावीरसेन- देवसेन- अमितगति ( प्रथम ) - नेमिषेण, माधवषेण, अमितगति और शिष्य परम्परा-शांतिषेण अमरसेन- श्रीषेण चन्द्रकीर्ति, अमरकीर्ति इस प्रकार रही है। 33 अमितगति मालव के परमारवंशी धारा नरेश मुंज और सिंधु के समकालीन थे। मुंज का दूसरा नाम वाक्पतिराज था, जो स्वयं भी विद्वान् एवं विद्वानों का आदर करनेवाला था। अमितगति का स्थिति काल 11वीं शताब्दी विक्रमी का पूर्वार्द्ध जान पड़ता है। (15) मुनिश्रीचन्द्र : ये लाड़ बागड़ संघ और बलात्कार गण के आचार्य श्रीनन्दी के शिष्य थे। वे धारा के निवासी थे। इन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना धारा में रहकर ही की है जो महत्त्वपूर्ण है। इनके द्वारा रचित टीकाओं की प्रशस्तियों में सागरसेन और प्रवचनसेन नाम के दो सैद्धान्तिक विद्वानों का उल्लेख आता है ये दोनों सैद्धान्तिक भी धारा के ही निवासी थे। इससे विदित होता है कि उस समय धारा में अनेक जैन विद्वान् और मुनि निवास करते थे। अ (16) आचार्य माणिकक्यनंदी : आचार्य माणिक्यनंदी दर्शनशास्त्र के Jain Education International For Personal & Private Use Only 145 www.jainelibrary.org
SR No.004157
Book TitlePrachin evam Madhyakalin Malva me Jain Dharm Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTejsinh Gaud
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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